पृष्ठ:हिन्दी विश्वकोष एकविंश भाग.djvu/८१७

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विसूचिका ७१५ बार उदरामयकी तरह मलभेद और भुफ्त द्रव्यका घमन को २० रत्ती इस चूर्ण के साथ भाध रत्ती अफीम मिला होकर पोछे यय या चाचलके पयायको तरह अथमा कर सेवन कराया जा सकता है। इसके कम उनके सड़े कुम्हड़े के जलको तरह जलपत् भेद और जलरोगीको अफोम न दे कर फेवल चूर्ण ही दिया जाना यमन होता रहता है। कभी कभी रक्तवर्णका भेद ! चाहिये। रोगीके उम्र और रोगके प्रावल्पके अनुसार होता देखा जाता है। उदमे घेदना होती है। मलको । औषधको माधी चौपाई मात्रा दो जा सकती है। अफीम वू सड़ी मछलीकी यू की तरह होती है और मूत्ररोध हो । आधी रत्ती, मरिचचूर्ण चौधाई रत्ती, हींग चौधाई रत्तो, जाता है। क्रमश: मांखें नोचेको धंस जाती हैं. होंठ और कपूर रस्ती एकत मिला कर एक-एक माला एक नोले, नाक अची, हाथ पैरम झिनझिनी और घे शीतल वार भेद या दस्तके बाद खिलाना चाहिये । दस्त बन्द हो और सकुचित, उगलोका अप्रमाग गहरा होना, शरीर- | जाने पर दो तीन दिन तक सयेरे शाम तक तीन मात्रा का रक्तशून्य हो जाना और धर्म युक्त, नाडोक्षीण, गोतल, सेवन कराना चाहिये। अफीमका मासय भी इस फिर भी घेगयुफ्त तथा क्रम क्रमसे लुप्त. हिचकी, दारुण रोगको प्रशस्त औपध है। ५से १० पून्द तक मात्रामे पिपासा, माह, भ्रम, प्रलाप, ज्वर, अन्तर्दाह, स्वरभङ्ग ! विवेचना कर शीतल जल के साथ प्रयोग करना चाहिये। अस्थिरता, अनिद्रा, शिराघूर्णन, शिरमे दर्द, कानोंमे मुस्ताय घटी, कपूररस, प्रहणीकधाररस आदि और विविध शम्दीका सुनाई देना, मांस्त्रोंसे विविध प्रकारक मतीसार और ग्रहणी रोगोक्त प्रवल अतीसारनाशक विध्यारूपदर्शन, जिला और निश्वासको शीतलता और। ओषध भी इस गेगमे प्रयुक्त होती है। इन सब मोप?- दांतोंका बाहर निकलना आदि लक्षण दिखाई देते हैं। । के व्यवहारफे समय थोड़ा मालामें मृतसञ्जीवनी मुरा चिकित्सा-इस रोगके होते ही इसकी चिकित्सा जलमें मिला कर सेवन करानेसे विशेष उपकार होता है। होनी चाहिये। किन्तु इस रोगमै पहले बलवान धारक किन्तु धमम घेग या हिचकी रहनेसे सुरा न दे सीधु पान मोषध सेवन करना उचित नहीं। उससे आपाततः भेद करायें। इससे हिनकी, यमन, पिपासा और उदाध्मान निधारित होने पर भी वमनगृद्धि और उदरामान आदि । निवारित होते हैं। एक छटाक इन्द्रयव पक सेर जलमें उपसर्ग उत्पन्न हो सकते हैं। और भी कुछ क्षणके | सिद्ध कर जव एक पाप रह जाय, तो उतार ले । इसका लिये भो भेद नियारित हो कर पीने और अधिक परि एक तोला माघ घण्टे पर सेवन कराना चाहिये, इससे माणसे भेद होनेको आशङ्का है। इसीलिये पहली भी विशेष उपकार होता है। अयम्या धारक औपय अति अल्प मानार्म चार बार ___अपाङ्गका मूल जल के साथ पीस कर सघन करनेसे प्रयोग करना उचित है। अजोर्णताके कारण यह रोग विसूचिका रोगको शान्ति होती है। करेलेफे पने के . उत्पन्न होनेसे पहले पाचक और अल्पधारक औषधका | काथमें पोपलर्ण झाल कर सेवन करने से विसूचिका प्रयोग करना आवश्यक है। नृपयल्लभ आदि भीषध | रोग मारोग्य होता है और जठराग्नि उद्दीपित होती है। मजोर्णजनितरिसूत्रिकाम बहुत उपकारक हैं। घेलसाठ, सोड इन दो चीजोंका पयाथ या इनके साथ .. दुमरी चिकित्सामैं पहले दारचीनी, पौन तोला, कटफलका पवाथ मिला कर संघन करनेसे भी विशेष ककुम पौन तोला, लयद आने भर, छोटी इलायची । उपकार होता है। दाम 1) माने भर अलग अलग उत्तम रूपसे चूर्ण कर २५ के रोषने तथा पेशाब करानेको उपाय-अत्यन्त के नोले ईखकी चीनी में अच्छी तरह मिला दे। सय मिला | होते रहने पर एक पसर धामका लाया एक तोला कर जिनना पजन होगा, उसके तीन भागोंका एक भाग। चीनीमे मिला कर डेढ पाय जलमें सिंगा दे। कुछ देर के फरवड़ी चूर्ण मिला कर रोग और रोगोके वलके अनु- बाद छान ले और उसके जल में बसकी जड़ मूल १ तोला सार, १० से ३० रत्ती तक मात्रा में पारधार सेवन कराना | छोटी इलायचो आध ताला और सौंफ माघ तोला पोस चाहिये । २० घकि युवकसे ५० वर्ष नकके चुद रोगी । पदा चन्दन घिसा हुआ १ वाला मिला देना