पृष्ठ:हिन्दी विश्वकोष नवम भाग.djvu/१९४

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ये पञ्चोम तत्व ही जगत्कं मूल कारण है। इन वेदान्तके मतसे परब्रह्म निगुर, निर्विकार पोर तत्वाँसे जगत्को उत्पत्ति हुई है। जब रम जगत्का चिन्मयस्वरूप है। जगत् गदि भा हो तो उनको जो नाश होगा, सच उक्त ममम्त तत्त्व प्रतति में सोन हो जगत्वास, सर्वमियम्सा इत्यादि कहा गया है, वह भी जायगे। फिर मृष्टिक पारम्भमें प्रकृतिसे तत्वसमुह उत्पन्न सत्य नहीं, आरोपमात्र है। वास्तविक स्वरूप नहीं है। जोव वास्तविक परब्रह्म मिवा पोर कुछ नहीं प्रतिम दमो तरह तत्त्व उत्पन्न हा करते हैं। है, अयमात्मा, प्रहं ब्रह्मास्त्रि, सत्त्वमसि इत्यादि वाक्योंमें पहले प्रकृतिम महत्तव (बुद्धिसत्व) उत्पन्न होता है, ब्रह्म हो एक तत्त्व है, सदतिरिक्त अन्य कोई भो तत्व पोके मरतत्त्व असारतत्त्व, अङ्गारतत्त्वम एकादश नहीं है। विस्तृत विवरण ब्रह्म और प्रकृति शब्दमें देखो। इन्द्रिय { पॉव जानेन्द्रियों, पांच कर्मेन्द्रियों ) पोर मन चतुस्तत्त्व -तेजः पप.पृथिवो और पामा। पञ्च- और पञ्चतन्मावतत्त्व, पञ्चसन्मावतत्त्वमे पञ्चमहाभूततत्व तत्त्व-शब्द, स्पर्श, रूप, रस ओर गन्ध। प. सत्व- को । पृथ्वी जल आदि ) उत्पत्ति होतो है ; इमो तरह क्षिति, अप., तेज, मरुत्, व्योम और परमात्मा। मृष्टिके विनोपकालमें पञ्चमहाभूत पञ्चतन्मात्रमें, पञ्चः सप्तत्तत्व-पञ्चमहाभूत. जीव और परमात्मा। नव- सम्मान और एकादा इन्द्रिय अङ्गारमे, अनारमह-तत्त्व-पुरुष, प्रकृति, महत्तत्व, पहार, नमः वायु, तत्त्वमें मोर महत्तत्व प्रक्षतिमें नोन हो जाता है। उम ज्योति, पप् और क्षिति। एकादशतत्त्व-श्रोत्र, त्वकु. समय सिर्फ प्रकृति और पुरुष बाकी रही है। जिला, चक्षु, नामिका, वाक्, पाणि, पायु, पाद, उपस्थ (सांख्यद० १६१ और मन । पातालदर्शनके मतसे सत्त्व छब्बोम हैं-पश्चीम ती योदशतत्व-नमः, वायु, ज्योति, अए, क्षिति, श्रोत्र, मास्यवाले पोर छब्बीमा ईश्वर भी तत्त्व है। मायके वक, चक्षु, घ्राणा, जिला, मन, जीवात्मा और परमात्मा । पुरुषसे योग र ईखर में विशेषता इतनो ही है कि योगका षोड़शतत्व-पञ्चभूत, पञ्चजानन्द्रिय, मन, रूप, रम, गन्ध, ईयर केश कर्म , विपाक आदिसे पृथक् माना गया शब्द और स्पश । मानदशतत्त्व-घोड़शतत्व और पारमा । है। मायावादी वैदान्तिको मतसे ब्रह्म ही एकमात्र शून्यवादो बौद्धोंके मतसे शून्य ही एकमात्र जगत्का परमार्थ तत्त्व है, उसके सिवा और कुछ भी तत्त्व नहीं सल्वभाव पर्थात् जिसका अस्तित्व अनुभूत होता है, है, मिर्फ मायाकल्पित है। मब हो ब्रह्ममय है, जो कुछ उसका शेषफल प्रभाव वा विनाश है। वह विनाश वस्तु- दोखता है, वह सब ब्रह्म है, इसलिए एकमात्र ब्रह्मही मा०का स्वधर्म वा स्वभाव है। शून्यवादियोंका ममो- परमार्थ तय है. बह्मातिरिका अन्य तत्वान्सर नहीं है। भाव यह है कि, वस्तुको प्राटिमें उत्पत्तिसे पहले शून्य __माया परब्रह्मको गतिम्वरूप है। ब्रह्म मायावच्छिन वा प्रभाव हो तत्व है, शेषमें भी शून्य वा प्रभाव है। होते हो जगत् उत्पन होता है। किन्तु स्पलान्तरमें वे मध्यमें जो किञ्चित् स्थायित्व पाया जाता है, विचार कर मित्व मुताखभाव कह गये। देखनेमे वह भी प्रभाव वा शून्य है। शून्यतत्ववादियों वैदान्तिकगण एक उपमा दे कर इन दो परस्पर : के मतमे, मृत्यु के बाद श न्यले सिवा और कुछ भी नहीं विध वाक्योंका मामलस्य किया करते हैं। जैसे वृक्ष- रहता । अतएव मरनेसे ही मुक्ति होती है। शून्य हो श्रेणोक अन्यन्तरसे उमके अन्तरालस्य महान् पाकाशको तत्व है, शन्य ही सार है, यह मूढबुद्धि कुतार्किकोका देसीसे वह खण्ड रखगड दोखता है, किन्तु वास्तवम , प्रलाप है; शन्यवादो नास्तिकबुद्धि मोइवयत: ऐसो प्रकाश सहित नहीं होता, उसी तरह ब्रह्म मायाव- कल्पना करते है, जिसको प्रमाणित नहीं कर सकते। विहोने पर भी वास्तवमै अवच्छिव नहीं होते। वे चार्वाक्मतसे चिति, अप, तेज और मक्त, ये चार स्वभावत: पूर्ण और मुतास्वरूप हैं तथा उसी रूपमै ! तरव है, ये हो जगत्के कारण है। इन चार भूतोंसे ही | साबरवामानक परिहामाम जगत्की उत्पतिः ।। i