पृष्ठ:हिन्दी विश्वकोष नवम भाग.djvu/२२४

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वेश्य तोन वर्ष में चोर शूद्र चार वर्ष में शिव होने के उप-! पति पत्नोको, पिता कन्या वा पुत्रको, माता भाईको युक्त होता है । शिव उपयुक्त होने पर सदगुरुको चाहिये दोक्षा न देवें । पति सिद्धमत्र होने पर पत्रोको दोक्षित कि, उससे सपापूर्वक सम्पण' दोचाको विधियोका कर सकते है। क्योकि उनके गतित्वके कारण वह कन्या पालन करावें। महीं समझो जाती। उका लक्षणाक्रान्त होने पर भी सबसे दोचा लेनको गणेशविमर्षि पीके मतसे- विधि नहीं है। योगिनीतम्बमें लिखा - "प्रमादादा तथाज्ञानात् पितुदीक्षा समाचरन् । "पितुर्मन्त्र न गृहीयात् तथा मातामहस्य च । प्रायश्चित्तं तत: ला पुनदीक्षा समाचरेत् ॥" सोदरस्य कनिष्ठस्य वैरिपक्षाश्रितस्य च ॥ प्रमाद वश वा पन्नान वा यदि पितामे दीक्षा लो पिता, मातामह, सहोदर वा अपनी अपेक्षा छोटी जाय, तो प्रायश्चित्त करके पुन: दीक्षा लेनी पड़ता है। उम्मवासेसे तथा शत्र पक्षवालोंसे मात्र ग्रहण न करना अष्णानन्दने तंत्रमारमें लिखा है-- चाहिये। "वैष्णवे वैष्णवो प्राय: शै वे शैवच शक्तिके । कामाख्यातबके मससे- शैवः शाकोनि सर्वत्र दीक्षास्वामी न संशयः ॥" "अन्धंस तथा रुपनं स्वल्पज्ञानयुत पुन:। वैष्णवका वैषणव तथा शैवका शैव और शाक्त ग्राद्य सामान्यकौलं वरदे वर्जयेन्मतिमान् सदा॥ है। शव और शात मवत्र हो दोक्षागुरु हो सकते हैं। उदासीनं विशेषेण वर्जयेत् सिद्धिकामुकः । देशभेदसे भो गुरुप्रोम तारतम्य होता है। वृहत्गौत- उदासीनमुखाहीक्षा बन्ध्या नारी यथा प्रिये । मोयतंत्रके मसमे- माना यदि वा मोहादुदासीन न्तु पामरः। "पाश्चात्या गुरवा मुख्या दाक्षिणात्याश्च मध्यमाः। अभिषिको भवेद देवि विघ्रस्तस्य पदे पदे। गौन्देशोद्वा न्यूना कामरूपोद्भवास्तथा । सर्व हि विफलं तस्य नरकं याति चाम्तिमे।” (८०) कलिंगाद्याश्च ये प्रोक्ता अबभास्ते द्विजाः स्मृताः॥" मतिमान् सिद्धिकामुक शक्तिको चाहिये कि, वह पाश्चात्य वैदिक गुरु प्रधान, दाक्षिणात्य में मध्यम, अन्धा, लता, रुग्न, अल्पज्ञानो, सामान्य कौल, विशेषतः गौड़ और कामयो के ब्राह्मगगण उनकी अपेक्षा न्य न, उदासोमको परित्याग कर दे। क्योंकि बन्ध्या नारी कलिङ्गादि अधम हैं। जैसी है, उदासीनके पास दीक्षा लेना भो वैसा ही है। विद्याधराचाय धृत जामलवचनके मतमे- यदि बिना जाने किम्बा मोहसे उदासोमसे दोक्षा ले लो "मध्यदेशे कुरुक्षेत्र लाटकोंकणसम्भवाः। हो. तो उसको पदपद में विघ्न हुआ करते हैं। उसके अन्तर्वदिप्रतिष्ठाना अयन्ता गुरुत्तमाः॥ सभी कार्य विफल है। पन्सको वह नरक जाता है। गौड़ा शाल्वोद्भवा सौरा मागधा केरलास्तथा । गणेशविमर्षि पोतबके मतसे- कांशलाश्च दशार्णाश्च गुरवः सप्त मध्यमाः। "यतेदशा पितुर्दावा दीक्षा च बनवासिनः । कर्णाट-नर्मदा-रेवा-कच्छतीरोद्भवास्तथा । विविकाश्रमिणो दीक्षा न सा कल्याणदायिका ॥" कलिंगाश्च कम्बलाश्च काम्बोजाश्चाधमा मताः॥" यति, पिता, वनवासी और रहस्याश्रम परित्यागोसे मध्यदेश में कुरुक्षेत्र, लाट, कोण, अन्तर्वेदि, प्रतिष्ठान दीक्षा लेना मङ्गलजनक नहीं है। और प्रवन्ति, इन स्थानांके गुरु उत्तम वा श्रेष्ठ, गौड़, रुद्रयामल में लिखा है- पाल्व, सौर, मगध, केरल, काशल, दशाण', इन सात "न पनी दीक्षयेद् भर्ता न पिता दीक्षयेत् सुताम् । स्थानोंके गुरु मध्यम तथा कर्पाट, नर्मदा, रवा पोर न पुत्रश्च तथा भ्राता भ्रातरं न च दीक्षयेत् ॥ कछतोरवासी, कलिङ्ग, कम्बल और काम्बोजवासी गुर सिद्धमत्रो यदि पतिस्तदा पत्नीं सदीक्षयेत् । अधम होते हैं। फिरवेन वरारोहे न च सा पुत्रिका भवेत् ॥" . तनिक दीचा कामबगुरु प्राय करनेमें श्री शूद्र' विवि काना