पृष्ठ:हिन्दी विश्वकोष नवम भाग.djvu/२२६

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२२२ देश वैष्णवाचार- वेदाचारक्रमेणैव पदा नियमतस्परः । मबदाम भोर मयपान परतो या समस्त फसीको मैथुन तरकथालापं कदाचिौब कारयेत् ॥ माम करता है। दिसा निन्दा च कौटिल्य वयेन्मांसभोजनम् । कौगचार-"दिक्कानियमो नास्ति तिख्यादिनियमो न च । रात्री माला च यन्त्र च स्पृशेनैव कदाचन ॥" नियमो नास्ति देवेशि महामन्त्रस्य साधने । वेदाचारको विधिके अनुसार सर्वदा नियमतत्पर कचित् विष्टः कचित् भ्राः कचित् भूतपिशाचवत् । होना चाहिये । मैथुन वा उमका कथाप्रसङ्ग भी कभो न नानावेशधरा कोला: विचरन्ति महीतले। करना चाहिये, हिसा, निन्दा, कुटिलता और मांस कर्दमे चम्दनेऽभिम मित्रे शत्रौ तथा प्रिये । भोजन परित्याग करना चाहिये । रातको कभी माला वा श्मशाने भवने देवि तथैव कांचने तृणे । . यन्त्र न छूना चाहिये। ने भेदो यस्य देवेशि कौल परिकीर्तितः ॥" शैवाचार-"वेदाचारकमेणैव शैवे शाक्ते व्यवस्थितम् । (निसातन्त्र) तद्विशेष' महादेवि ! केवल पशुधःतनम् ॥" दिक्कालका नियम नहीं है, तिष्यादिका भी नियम शैव पौर शान के लिए जैसे वेदाचारको व्यवस्था नहीं है, देवेशि ! महामन्त्रसाधनका भी नियम नहीं टो गई है, इनके लिए भी वैसो हो है। शैवाचारमें है। कभी शिष्ट कभी भ्रष्ट और कभी भूतपिशाचके विशेषता इसनो हो है कि, इसमें केवल पशुहत्याको समान, इस तरह मामा वेषधारो कोस महीतल पर व्यवस्था है। विचरण करते है। प्रिये ! कदम और चन्दनमें, मित्र दक्षिणाचार-'वेदाचारक्रमेणेव पूजयेत् परमेश्वरीम् । और शत्र में, श्मशान पोर गहमें, सर्व पोर तृणमें स्वीकृस्य विजया रात्रौ अपेन्मत्रमनन्यधीः ॥" . जिनको भेदनाम नहीं उन्हें हो बोल कहा जा बेदाचारके क्रमानुसार पाद्याशक्तिको पूजा करें और सकता है। रातको विजया पहण करके एकाग्रचिससे जप करें। यद्यपि नित्यातंत्र और कुलार्णवमें सात प्रकारक बामाचार-पतवं खपुष्पं च पूजयेत् कुलयोषितम्। प्राचारोंका उरण, तथापि प्रधानतः दक्षिणाचार और वामाचारो भवेत्तत्र वामा भूत्वा यजेत् पराम् ॥" वामाचार ये दो प्रकारके वाचार की देखनिमें पाते। (आचारभेदत.) दक्षिणाचारतंबराजमें लिखा- पञ्चतत्व पथवा पचमकार, खपुष्प पर्थात रजस्खला "दक्षिणाचारतम्बोकं कर्मतच्युखवैदिष्म।" के रजः और कुलस्त्रोको पूजा करें । ऐसा करनेसे वामा- दक्षिवाचारतंचमें जिस प्रकारको कर्मपति विहत चार होता है। इसमे स्वयं वामा हो कर पराशक्तिको दुई, वो राजवैदिक है। पूजा करें। ___ वास्तव में दक्षिणाचारो सोग वेदोश विधिके अनुसार सिद्धान्तागा-"शुद्धाशुख भवेत् शुद्ध शोधनादेव पार्वति । अर्थात् पछभावसे भगवतीजी पर्चना किया करते हैं। ___एतदेव महेशानि सिद्धान्ताचारलक्षणम् ॥" वेवामाचारियोको तरसमय-मांस व्यवहार वा पक्षिसाध. पार्वति ! यह क्या पशा वस्तुपोंके शोधन करनेसे शइ नादि नहीं करते । दक्षिणाचारतबके मतसे रा-मांसादि सपा करता है। सिद्वान्ताचारका लक्षण निम्न प्रकार रहित सात्विक वलि देना ही बावरीके लिए विषय। । समयाचारतम्बमें सिधान्ताचारियों के विषयमें दाक्षिणात्यमें बहुतमे दक्षिणाचारो सामाख्या- लिखा-देवपूजारतो नित्य तथा विष्णुपरो दिवा। संवमें (.४य पटल) पणभावका विषय इस प्रकार

मकद्रव्यादिकं सर्व यथालाभेन चोत्तमम्॥ लिखा-

' विधिवत् क्रियते भवत्या सर्व च फलं लभेत् ॥" . ."पंचतवं न यहाति तत्र निन्दा करोति न । जो सर्वदा देवपूजा में निरत है, दिनमें विष्णुपरायण शिवेन गवितं यत्तु तत्सत्यमिति भाग्यम् । होकर रातको यथामाध्य पौर भक्तिभावसे यथाविधि . . . निन्दायाः पातक वैति ARRESतितः। .