पृष्ठ:हिन्दी विश्वकोष नवम भाग.djvu/२५४

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२५० गजवेश्या, नागरी, गुणवेश्या, देववेश्या और ब्रह्मवेण्या ये वखालंकारभूषायेगम्धमायानुलेपनम् । पञ्चवेश्या हो पञ्चगक्ति । राजमेवापर या गजवेश्या, पूजयेत् परयाभक्तथा देवताभ्यो निवेदयेन् । कौलजा गुप्तवेश्या नृत्यकारिणां देववेश्या. तीर्थ गामिनी भक्ष्यं नानाविधं द्रव्य' नानावनसमन्वितम् ॥ ब्रह्मवेश्या और साई भी रजस्वन्ना कन्या नागरो कहलाता आसवं शुद्धिसंयुक्तं ताभ्यो दद्यात् पुन. पुनः । है, ये पोचाया हैं इनको देवचक्रमें नियोजित करें। प्रणमेत् प्रजपेन्मत्र' दृष्ट्वा ताश्च सहनकम् ॥ "जिचक्र गजद स्यात् महाचक्रे समृद्धिदम् । अंग नैव स्पृशेत्तासां स्पृशश्व नरके ब्रजेत् । देवचक्रे च सौभाग्य यो चक' च मोक्षदम् ॥" मधुमत्ता सदा तास्तु न सपन्ति भुपम्पदः ॥ राजचक्रका अनुष्ठान करनेमे राज्यलाभ, महाचक्रमे तरुदेव भवेत् सर्व मान्यसत्यं न मशः । ममृडि, देवचक्रमे सौभाग्य और वोरचक्रमे मोक्षकी प्रास षष्टिवर्षसहस्राणि ब्रह्मलोके महीयते ॥" होता है । ( रुद्रयामल) गलचन्दन और अनुकल्प मे खेतचन्दनको वस्त्र, अन्न- ‘पञ्चचके प्रशस्ता यास्ता: शृणुष्व वरानने। झार प्रादिक हाग भूषित करें तथा परमभक्ति के माथ उमे चक' चविध' प्रोक्त तत्र शक्ति प्रपूजयेत् ॥ देवताको सेवामें उपस्थित करें। नाना प्रकार के भक्ष्य राजचक महाचक्र' देवचक तृतीयकम् । पदार्थ, चित्र विचित्र वस्त्र प्रादि तथा आसव शुद्धि कर के वीर चक्र चतुर्थ च पशुचकं च पचमम् ॥" उन्हें पुनः पुनः प्रदान करें। प्रणाम करके उनको और पञ्चवक्रम जो प्राप्त हैं, उनका विषय कहा जाता अवलोकन पूर्व क हजार जा कर। उनका अङ्गा स्पर्ग है चक्र पाच प्रकार के हैं, उनसे शक्ति की पूजा करें। न करें यदि पा करेंगे. तो रोव नरक की जाना पड़ेगा। राजचक्र, महाचका, देवचक्र, वीरचक्र और पशचक्र ये व मधुमत्तागण उसको शाप नही देते तथा व षष्ट चक्र हैं। महसू वर्ष पर्यन्त स्वर्गलोकमें काम करते हैं। "पच यजेदिगो वीरथ कुलसुन्दरि । "माता भनी स्नुषा कन्या वीरपत्नी कुलेश्वरी । ब्रह्मगरी गृहस्थश्च पचचके प्रपूजयेत् ॥ महाशक्त यजेदेता: चयनि पुर: पुनः॥ ब्रह्म-गरी गृहस्थश्च वीरचकण जयेत् । द्रव्यदाने तु मंपूज्या नशक्तो शिवयोज-म। योगि भः पूज्यते देवि सर्वचकेषु कामिनी ॥ योजयेत् सिद्धिानि स्यात् रौरव नरके प्रजेत् ॥ माता च भगिनी चैव दुहिता च स्नुषा तथा । महाव्याधि वेदेव धनहानि प्रज यते । गुरु श्री च ५ चैता राजचके प्रपूजयेत् ॥ सदैव दुःख भाप्नोति सर्व तस्य विनश्यति ॥ गौड़ी वाप्यथवा माध्वी सुरा शस्ता कुलेश्ररी । भाय'च गौड़िक प्रोक्त द्वितीयं ,कटोद्भवम् । शुदश्चागे द्भवा शस्ता तृतीया वेदसम्भवा॥ हनीय रोहित प्रोक्त चतुर्थ म समाव । मुत्रा गे धूमजा शरता स्वम्भूकुसुमस्तथा । करवीद्भवं पुष्प चंदन' रक्तचदम । कु० गोलोद्भन द्रव्य अनुकल्प नियोजयेत् ॥" पूजयेत परयः भक्त्या शिवलोके महीयते॥ वोर पञ्चनको याग करें। ब्रह्म नारो पार ग्रहस्थ भी षष्टिवर्षसहस्राणि नत्र देवी प्रपूजयेत। पञ्चचक्रमे १ जा कर सकते हैं। योगिगण मभी चक्रमे अष्टम्यांच चतुर्दश्यां यांच कुजे ऽहनि । 'कामिनो प जा कर मकते हैं। माता, भगिनो, पुत्री पुत्र राजचके महाचके भक्त्या शक्तिः प्रपूजयेत् । वधू, गुरुपत्नो, इन पॉचाको राजची पूजा करनी शुक्लाक्षे गुतेरे चतुर्थ-सप्तमी तिथौ ॥ चाहिये । गोरो, मावा, सुरा, मुद्र', स्वयम्भ कुसम, कुम्भ महाचके यजेत् भक्त्या पूर्वकामा सिद्धये ।" गोलोनव द्रव्य, इन सबका अनुकल्पमें प्रयोग किया माता, भगिनो, पुत्रवधू, कन्या पौर वोरपडो ये कुले- खरो और पचति है, चनामे बार बार इनको पूजा की "रकचन्दन तथाश्वेतमनुकल्य र चन्दनम्। जाती है। न्यसे उनको पूजा करें, इन पक्षियों में जाता है।