पृष्ठ:हिन्दी विश्वकोष नवम भाग.djvu/२५५

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२५१ भो लिङ्ग योजन न करना चाहिये। योजन करने पांच विदग्धा कन्या, फलज रम्य गौरिक, हितोय पशि- सिबिहानि, सरव नामक नर में वास, महान्याधि, धन- सम्भव, बतीय शालिमल्य, चतुर्थ धान्यसम्भव और हानि, सर्वदा दु:खभोग और सर्वनाश होता है। प्रथम सुगन्धि गन्धपुष्य इनके द्वारा देवचक्रमें शक्तिपूजा करनी गौड़ो, दिनीय कटोझव, टतोय रोडित, चतुर्थ मास चाहिये । देवचक्रमें याग करनेसे देवलाकको गति ह.तो जात, करवारपुष्प, चन्दन और रताच-दन ; रन सबमे है। पञ्चकन्या चक्रमे याग करें, कभी भी इसके पतिरित टेवोको सभक्ति पूजा करनेसे शिवलोक को गमन होता याग न करें। लोभवश अथवा छल वा कामके वशीभूत है। वहाँ भात साठ हजार वर्ष तक देवीको पूजा हो यदि कोई इनके साथ सङ्गम करे, तो वह रोरव नरकमें किया करता है। अष्टमो, चतुर्दशो, अमावस्या अथवा जाता है। दोनों पक्षको अष्टमी और चतुर्दशोको पिट- मङ्गलवार को राजचक्र नामक महाचक्रसे भक्तिपूर्वक पञ्च- भूमिमें आ कर बोरचक्रमें पूजा करनी चाहिये। शक्ति को पूजा करं । सम्पण कामना और अर्थ मिहिके "सिद्धमन्त्री भवेत् वीगे नवीरो मद्यपानतः । लिए शलपक्ष में हम्पतिवारके चतुर्थी वा सप्तमी तिथिमें अभिषिक्तो भवेत वीरो अभिषिका च कौलिकी ॥ महाचक्रमे भक्तिपूर्वक याग करें। एवं'च वीरशक्तिच वीरचक्रे नियोजयेन् । माता, भगिनी आदि जिन पञ्चमहाशक्ति का विषय नाभिषिक्तो वसेञ्चके नामिषिक्ता च कौलि की। लिया गया है, उन पाँचों शब्दोंको पारिभाषिक समझना वसेच्च रौरव याति सत्य सत्यं न संशयः। चाहिये। निरुत्तरतन्त्रक १०३ पटलमें लिखा है- एवं कम विना देवि वीरचके वसेत यदि ॥ "भूमीन्द्र कन्यका माता दुहितः रजकीसुता । सिद्धिहानि सिद्धिहानि रौरव नरकं व्रजेत् । श्वपची च वसा ज्ञेया कापाली च स्नुषा स्मृता ॥ सर्वमयं सर्वशुद्धिं सर्वमीन कुलेश्वरि ॥ योगिनी निजशक्ति: स्यात् पञ्चकन्याः प्रकीर्तिताः ।" सर्वमुद्रा सर्वपुष्पं वयम्भूकुसमन्तथा। माता कहनेमे गजकन्या, दुहिता कहनमे रजकीकी कुण्डगोलोद्भवदव्य नानारससमन्वितम् ॥ कन्या, खसा कहनेसे चण्डाली, मषा कहनसे कापाली प्रदयात् साधको श्रेष्ठो वीर चके पुनः पुनः। तथा अपना शक्तिको योगिनी समझना चाहिये- ये पांच स्वशक्ति पूजयेत्तत्र नदुरिष्ट पिवेत् प्रिये ॥ पञ्चकन्या कहलाती है। चम्य'च ज्येष्ठतो प्राय कनिष्ठाय निवेदयेत। "देवचक्र' प्रवक्ष्यामि शृणुष्व वरवर्णिनि । एकासने न भुजीत भोजन नकभाजने ॥ विदग्धा सर्वजातीनां पञ्चकन्याः प्रकीर्तिताः॥ परस्पर्शमुखस्पर्श न कर्तम्यं कदाचन । गौडिक' फलज र द्वितीय पक्षिसंभवम् । एवक्रमेण दवेशि वीरचक्र समाचरेत् ॥ तृतीयं शालमत्त्यन्तु चतुर्थ धाग्यसंभवम ॥ थानीय हीना देवीं शफिमन्त्रेण शोधयेत। सुगन्धि गन्धपुष्प' च देवचके नियोजयेत् । संशष्य हीना पूजा वीरशक्ति निवेदयेत। देवचक्रे यजेत् शक्ति देवलोके महीयते ॥ मधुप काय वीराय यो दयात् हीनां सुताम् । षष्टिवर्षसहस्राणि देवकन्या: प्रपूजयेत्। वक्त्रकोटिस होण तस्य पुण्यं न पयते । पंजस्या यजेडचके नातिरिकां कदाचन । वीराय शक्तिदानन्तु वीरचके विधीयो । लोभाद्वा कामतो वापि छलाद्वा वरवणिनि । बभिन्ने चरेत् दान' गौरव नरक ब्रजेत् ॥ यदि स्यात् संगमस्सासो रौरवं मरकं ब्रजेत् ॥ चातयेद् गोपयेद्वापि न निम्वेन निरीक्षयेत्।। भष्टभ्यांच चतुर्दश्या पक्षयोरुममोरपि। काम क्रोधच मास्वयं विकार लोममेव च . पितृभूमि समागम्य वीरचके प्रपूजयेत् ॥ कुत्सा निन्दा दुरालाप गोयेष्टक प्रिये । दिव्यवीरान्वितो मन्त्री यजेत् शक्तिः बलियसीम। मत्र मुद्रामक्षमासां योनि च वीरमंगमम् ॥ देवचक्राका विषय कहा जाता है-सर्वजातिको मंडलंपट पीसिम्मिानि गोपयेत्।