पृष्ठ:हिन्दी विश्वकोष नवम भाग.djvu/२५९

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गीत शुषा व पिरो निधन नृत्यदर्शनात् ॥ दिनके पन्समें साधक देवोकी पूजा करके वसिप्रदान यदि वक्ति दिवा वाक्य तदास्य मूबता ब्रजेत् । करें और प्रार्थना करें कि-हे देवि! मेरे पंचदश दिन यावत् देहे देवस्य संस्थितिः ॥ बारा प्रदत्त बलिको प्राण कीजिये। दूसरे दिन ना स्वीकुर्यात् गन्धपुष्पे वहिति यदा भवेत् । पञ्चगव्य पान कर पचीस नागोको जिमावे । तदनन्तर तदा वस्त्र परित्यज्य गृह्णीयाद्वसनान्तरम् । साम और भोजन कर उत्तम स्थानमें काम करें । गोबामणविनिन्दांच न कुच्चि कदाचन । साधक यदि ब्राह्मणभोजन न करावे तो वह निर्धन होता देवगोबामगादींश्च संस्पृशेत् प्रत्यह शचिः ॥ है और यदि निधन भो न हो तो देवो उस पर कुपित प्रातर्नित्यक्रियान्ते च विल्वपत्रोदक पिवेत् । होता है। दिन, दिन वा ७ दिन तक रसको गुम तत: स्नात्वा च गगायां प्राप्ते षोडशवासरे ॥ रखना चाहिये। साधक यदि स्त्रोको शय्या पर गमन स्वाहान्त मन्त्रमुच्चार्य तर्पण'न्ते नमः प्रदम् । करें, तो उसको व्याधि होतो है तथा गीत सुननेसे बारा, एवं शतत्रयादूर्ध्व देव वै तर्प येज्जले ॥ नाच देखनेसे अन्धा और दिनको बोलनसे गूंगा होता नानतर्पणशून्यन्तु नस्यादेवस्य तर्पणम् । है। इस प्रकारमे पन्द्रह दिन बिताने चाहिये। को कि इत्यनेन विधानेन सिद्धि प्राप्नोति साधक: ॥ पन दिन सक शगैरमें देवताका मस्थान रहता है। इति भुक्त्वा वरान् भोगान अन्ते याति हरेः पदम् ॥ न पन्द्रह दिनोंमें गन्दे वस्त्रों का व्यवहार न करना पैरो तले त्रिकोणयन्त्र लिखने के बाद उत्थान करने चाहिये । नाहर जाना हो तो वस्त्र बदल कर जावे । को शक्तहो और शव भो निश्चल होवेगा। पुन: उम पर गऊ और ब्राह्मणको कभी निन्दा न करें । देवता, उपवेशन करके पाद हाग दोनों बाहोंको निकालं और और ब्राह्मणका प्रतिदिन स्पर्श करें। प्रातःकालमें नित्य उस पर कुप बिछा कर परोको स्थापित करें। ओठोको क्रिया करने के उपरान्त विल्वपत्रोदक पान करें। पश्चात् मंपुट करके स्थिरचित्त और स्थिरेन्द्रिय होवें। इस प्रकार १६वें दिन गङ्गा-मान कर स्वाहान्त मून उच्चारणपूर्वक अनन्यचित्तसे हृदय में देवीका ध्यान कर जप करें। रम तर्पण करें और तर्पणा कर चुकने पर नमः पद प्रयोग प्रकारके अनुष्ठान करनेमे यदि पामन चञ्चल होवे, तो करें। डरना न चाहिये । भय होने पर उसकी पूजा करें और इस प्रकारसे तोन मोसे अई जलमें देवतपंण करें। कह कि "देवेशि : तुम जो चाहतो हो, दिनकै अन्त होनः मान करके ऐमा तर्पण न करनेमे, देवनयण न होगा। पर उसे मैं तुम्हें वही दूंगा। तुम अपना नाम प्रकट माधक को ऐमा आचरण करने पर अवश्य ही सिद्धि प्राप्त करो।" संस्कृतमें उसको यह बात कह कर निर्भयत से होगी। इस तरह मिहिलाभ करनेमे इस संसार में विविध पुनः जप करें। उसके बाद यदि वह मधुरवाक्य न भोग भोर अन्तमें स्वर्ग में गमन होता है। ( नीलतन ) कहें, तो साधकको उचित है कि, सत्य करा कर उन- तन्त्र मतमे मष्टितत्त्व- से वर प्रार्थना करें। यदि वह सत्य न करें वा वर न "निराकारं निर्गुग'च स्तुतिनिन्दाविवर्जितम् । दें, तो साधक पुन: पनन्यचित्तसे जप करना शुरू कर सुनित्य सर्वकार वर्णातीत सुनिश्चलम् ॥ हैं। पुनः ऐसा होने पर जब वह सत्य करें और वर संज्ञारिहित शान्त किमार प्रतिष्ठित । दें, उसके बाद उस वरको ले कर माधक जप करना तस्मादुत्पत्तिदेवेश रिमाकारेण जाते॥ होश। उसके बाद फल प्राप्त हो गया-ऐसा समझ कर चोटी खोल दें। पीछे शवको प्रक्षालित करके संस्था शंकर उवच- पन पूर्वक पादबन्धन मोचन करावें और पादनक मोचन करा कर पूजा-द्रव्यको जलमें निक्षेप करें। उसके शृणु देवि पर तत्व वर्णातीता व वैरी। बाद सबको पानो वा गहमें फेक कर खान करके घर- गुणालयां गुणातीता स्तुतिनिन्दादिवजिताम् ॥ बोबोटांव। भाकाररहितां नियां रोगशोकाविवर्जिताम ।