पृष्ठ:हिन्दी विश्वकोष नवम भाग.djvu/२६५

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सत्यलोकमें महाकाली महारुद्र द्वारा मपुटित हुई। अध्यातासे प्राण, पावसे मन पौर मनमे वाक्य की उत्पत्ति यह महाकालो चन्द्रसूर्याम्नि रूपविशिष्टा, प्रमादि रूप- होती है तथा मन वाक्य के साथ विलोम होता है । सूर्य, संयुना और चनककी भाँति पाजातिविशिष्टा है। समस्त चन्द्र, वायु और मन, ये कहा अवस्वान करते हैं? जीव इन महाकालीके पंधमात्र है। जिस तरह ज्वल- तालुम नमें चन्द्र, नाभिमूलमें दिवाकर. सूर्य के प्रागे दनिके विस्फुलिङ्ग स्फुरित होते हैं, किन्तु वे अग्निमै भित्र वायु और चन्द्र के पागे मन तथा सूर्य के भागे वित्त पोर नहीं है, उसी प्रकार जीव भी महाकालीसे भिन्न नहीं चन्द्र के आगे ओवन अवस्थित है। किस स्थानमें शति उनके अंशमात्र हैं। महाकालोसे जिम समय परब्रह्माच्युत शिव पवस्यान करते हैं? काल कहाँ रहता है और हो कर भूमि पर पड़े, हे देव ! उमो ममय वे शक्तियुक्त जग क्यों पाती है? हुए । स्थावरादि कोट और पशपनि प्रादि चौरामी लाख पाताल में शक्ति अवस्थित है, ब्रह्माण्ड में शिव वाम करते योनियोंमें जन्म लिया, उसके बाद दुर्लभ मनुष्यत्व प्राप्त है. पन्तरीक्षमें कालको अवस्थिति है और इस.कालसे ही किया. यह मनुष्य-शरीर हो धर्म और अधर्म का प्राकर जराको उत्पत्ति होती है। कौन तो आहारको पाकाशा है। इस धर्माधर्म के हारा मनुष्य एक बार जन्म ले कर करता है और कोन पानभोजनादि करता है तथा जापत, फिर मरता है। इस तरह मानव-समूह कर्मपाश हारा स्वप्र, सुषुल किमको होतो है और कोन प्रतिबुद्ध होता नियन्त्रित हो कर नाना प्रकारको योनियों में परिभ्रमण है? करता है। ____प्राण आहारको आकाह करते हैं, हुताशन पान- तन्त्रक मतसे तत्त्वज्ञान- भोजनादि करता है तथा जाग्रत, वन और सुषुप्लिमें वायु पञ्चभूत, एक एक भूत के पाँच पाँच करके २५ गुण ही प्रतिबुद्ध होती है। हैं। अस्थि, मांस, नख, त्वक, लोम, ये ५ पृथिवीके कोन तो कम करता है, कौन पातकम लिम होता गुणा। शुक्र, शोणिस, मज्जा, मल और मूत, ये ५ तथा पापका पाचरण करनेवाला कोन है पोर पायो जलके गुगा है, निद्रा, सुधा, तृष्णा, कान्ति और पान्नस्य मुक्त कौन होता है ? मन पाप कार्य करता है, मन हो ये पाँच तेजके गुण हैं। धारण, चालन, क्षेपण, सोच पापमें लिभ होता है। मन हो तम्मना हो कर पुण्य और और प्रसव, ये ५ वायु के गुण है। काम, क्रोध, मोर पाप उपार्जन करता है। जीव किस प्रकारसे शिव होता लज्जा और लोभ, ये ५ आकाशके गुण है। समुदायमें है।भ्रान्तियुक्त होने पर उसको जोव कहत. व जब पञ्चभूतके २५ गुण हैं। यह पञ्चभूत-महो जलमें, जल मान्तिमुक्त हो जाता है, सब उसे शिव करते हैं। तामस रविमें, रवि वायुमें और वायु प्राकाशमें विलोन व्यक्ति इम तीर्थ के लिये इसी तरह भ्रमण करते रहते होती है। है। पजामान्ध हो कर पामतीर्थ से वाकिफ नहीं होते। इन पञ्चतत्त्व के बाद भी तत्त्व है-स्पर्शन, रसम, पात्मतो के विमा जाने कैसे मोक्ष हो सकता है। घ्राण, चक्षु और श्रोत्र, ये पाँच इन्द्रिय और मन माधन वेद भी वेद नहीं है, अर्थात् ४ वेदोंको वेद नहीं इन्द्रिय है। यह प्रयाण्डलक्षण देहके मध्य व्यवस्थित है, कहा जा सकता, मनातन ब्राही बद। चार वेद तथा सलधातु, पात्मा, अन्तरामा पौर परमात्मा ये भो और समस्त शास्त्रोंके अध्ययन करके योगो उनका सार शरीरके मध्य अवस्थित है। शुक्र, शोणित, मज्जा, मेद, संग्रह करते है, किन्तु पण्डितगण तक पीया करता मांस, पस्थि और त्वक ये मानधातु हैं। . तप तपस्या नहो है, ब्रह्मचर्य हो तपस्या है जो बझ. शरीर हो पात्मा , अन्तगमा है। मन और परमात्मा चर्य के प्रभावसे ईरता होते. ही सपखी। शन्धमयस परमात्मा ही मन विलोन होता। होम आदि भी हम नहीं चाम्निमें प्राणोंका रताधात.माता, सनाधात पिता चोर न्यधातु ' प्राग, समर्पण करमा हो होम, मोक्ष लाभ करने के लिए पाप अनवमी पिलानी हत्पत्ति होती। पुख दोनोका बागबाना पड़ता। Vt. Ix.66