पृष्ठ:हिन्दी विश्वकोष नवम भाग.djvu/४२२

विकिस्रोत से
यह पृष्ठ अभी शोधित नहीं है।

४१८ सापक-पापनी हाम्न मे हो पापेक्षिक साप निकला मा मकता है। मन्ती पीड़ा होती है, उसी तरह अल्प दुःखके अनुभवमे ताप-विषयक निबन्ध एक तौर पर शेष हो गया। भी विवेकोको अन्यन्त कष्ट मालूम पड़ता है। क्योंकि विज्ञानका यर भाग अत्यन्त विशद है। ताप, तडित् मभी विषयोंका उपभोग करनेमे परिणाममें मस्कार. • और प्रकाश एन डाग दिनोंदिन कितने पाविष्कार वशतः दुःगद भुगतना पड़ता है। मनुष्य जितना विषय पनि हैं, उनका वण न दुःमाध्य है। रमो तायमे मेघ, भोग करता है, उसे भो अधिक भोग-लालसा बढ़तो वर्षा, प्राधो. ग्राम और बर्फ को उत्पत्ति है। है। किन्तु विषयमोगले ममय किसी विषय के नहीं तापक ' म ० ) तापयतीति तप-णिच गव न् । १ ताप मिलने पर जो दुःख होता है, उसे कोई परिहार नहीं कारक, ताप उत्पन्न करनेवाला । २ ज्वर. बुखार । ३ कर मकता ; वरन् 'दुःस्वान्तर उपस्थित हुआ करता है। रजोगुण । एय.मात्र रजोगुण हो तापका प्रतिकारण है। सुतरा विषयभोगमें कुछ भी सुग्वको मम्भावना नहीं है। नाप या दुःख की रजोगुणका धर्म है। सुग्वमाधक सामयो के उपस्थित होने पर उसके विरोधोके दुःख और रजोगुण देखा। प्रति हेष उत्पन्न होता है और सुखानुभव के ममय भो तापतिमी हि स्त्री० ) ज्वरयुक्ता प्लीहा-गेग, पिनहो तापरूप दुःख पहुंचता है। उप समय तो सुख मिलता बढ़ने की बीमारी। है और जब अनभिमत दृश्य उपस्थित होता है, तब दुःख तापतो (म स्त्री.) १ सूर्य की कन्या तापी। तागी देखो। हुआ करता है। इस प्रकार पुन:पुनः सुख भोर दुःख २ एक नदी। यह मातपुरा पहाड़से निकल कर पश्रिम की उत्पत्ति होतो है। अतएव सभोको दुःखमय ममझ ओर प्रवाहित हो खंभातको खाडीमें जा मिला है। कर विवेकशाली मुनि लोग विषयभोगादिका परित्याग तापत्य । सं० पु० स्त्री० ) सपत्याः सय कन्यायाः अपत्य करते हैं। सुखानुभवकं सग्य भो तापदुःख उपस्थित क्षत्रियत्वात ण्य । तपतोके वश कुरु।। होता है. क्योंकि सुवसाधक मामग्रो के उपस्थित होने पर ताती और तापी देखो। भो उम विरोधोक प्रति हेष रहता है। प्रतः ताप- तापत्रय (म० ला०) तापान त्रयः. ६ तत् । त्रिविध दुःख, दुःख, मस्कार दुःख और परिणाम दुःख इन तीन प्रकार- तोन प्रकारका ताप, जैसे-पाध्यात्मिक, प्राधिद विक के दुःखों हारा मत्व, रज पर तम इन सोन गुणको और आधिभौतिक । वृत्तिका स्वरूप देखा जाता है। अतएव किसी प्रकारका तापदुःख (म० लो०) सापरूप दुःख। दुःस्वभेद । पात- विषयभोग क्यों न हो, उमसे दुःखके सिवा सुखको मलदर्श नमें उस दुःखका विषय हम प्रकार लिया है सम्भावना नहीं है। विशेष विवरण दुःख में देखो। कौके पुण्यापुण्यके अनुसार सुख पार दुःख इपा तापम (सली) तप णिच् भावे ल्युट : १ तापकरण । करता है। पुण्यकर्म के फलसे उन्लष्ट जाति, चिरायु (पु०) कतरि ल्यु । २ सूर्य। ३ कामदेवके पांच वाणों में- और विषयभोगादि फल सुखप्रद होते है तथा पापकर्म- से एक वाण । ४ सूर्यकान्त मणि । ५.अर्कक्ष, मदार । के प्रभावमे परितापादि दुःख भोग रूप फल मिलता है। पानइ यन्त्र, ढोल नामका बाजा । (वि.) ७ तापक, अतएव सुख और दुःग्वभोग कर्मफलामुगर हुआ करता साप देनेवाला । ( लो०) ८ नरकविशेष, एक नरकका ।। जन साधारण उन दो प्रकारके फल भोग करते हैं, नाम | L तन्त्र में एक प्रकारका प्रयोग। इसमे शव को fन्तु यःगिगण सुख-दुःखादि भोगरूप सभी कम फलों को पोड़ा होतो है। दुध मानते हैं। ले शादिका ज्ञान हो जानसे जिन्हें सापना (हिं कि० ) १ पनिको गरमौसे अपनेको गरम विवेक उत्पन्न हो गया है, वे भोग माधक सभी द्रव्यों को करना । २ शरीर गरम करने के लिये जलाना, फंकना । विषाता सम्वादु अब जैसा प्रतिकूल समझते हैं । योगि- ३ नष्ट करना, बरबाद करना। गण दुःखक लेशमात्र हो उहिम्न हो जाते हैं। जिस तापनो ( को०) १ उपनिषदभेद. एक उपनिषदका तरह कोमलसे कोमल जनके डोरके समय से पांखोंको नाम २ वर्षमय, वा जो सोनेका बना हो। सर्वसा