पृष्ठ:हिन्दी विश्वकोष नवम भाग.djvu/४४५

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तामूली ४४१ हो चौदहमामो थाकके प्रवर्तक है । रम्होंने अपने धनके गालो ताम्बूलो साधारणतः वेखव होते हैं। इनमें प्रभावसे निकटवर्ती चौदाग्रामों के तांबूलियोंको अपनो ब्राण को पृथक् वा पतित नहीं है तथा क्षेत्रदेवता योमें मिला कर म थाको स्थापना को थी। हम और चन्द्रस्य को ये पूजा करते है । विहारमें बन्दो और घटनाके कुछ प्रमाण भो मिलते हैं बॉडचोमें एक देव. नरसिंह नामके याम्यदेवता हैं; गेई के पिष्टक, मिष्टाव, मन्दिरके प्रस्तरखगड़ पर लिखे हुए विवरगासे मान्न म केले और दहो भादिसे उनको पूजा होती है। अन्यान्य होता है, कि षष्ठी वरके पुत्र गोकुलने शक-म० १५०४ श्रमजोवो बणिजातियाँको तरह बनम भो कोई (१५८२ ई.) में इम मन्दिरको प्रतिमा को थो। इसमे कोई -विश्वकर्माम यन्त्रपूजाको तरह-शाखो णिमा यह महज ही कहा जा मकता है, कि चोटहग्रामो में चनादान, पान, सीता पोर कतरनो पाटिको पूजा थाकका प्रवर्तन इसमे ओर भो ५० वर्ष पहले हमा किया करते हैं। इनमें ३० दिनका पशोच होता है। था। वईमानो थाक चौद ग्रामो मे पहले प्रवर्तित हुआ ____ ताम्बूलको खेतो करना ओर पान बेचना इनका था। वोरभूम और वर्षमान में इम थाक के लोग हो अधिक पादि-व्यवसाय है। उत्तरभारतमें अब भो अधिकांश हैंपष्टग्रामियोका कहना है, कि पहले मलग्रामियों के समोला पान बेचन होका काम करते है, किन्तु बालके ममकालमें वे भी उत्तरभारतमे श्रा कर पहले उड़ीसामें तमोलियों ने प्रायः जातीय व्यवसाय छोड़ दिया है, दुकान बमे थे और इमीलिए वे अपनेको अन्य थाकी मे कुक होन दारो, अनाजका गेजगार और चूमा प्रादि बेचने का काम समझते हैं। इनमें कई एक थाकोंके काश्यप, कुम्म, करते हैं। बहुतमे लोग दफ्तगमें केरानोका काम करते, परागर, शागिडल्य और व्याम गोत्र हैं। और बहुतमे जमोदारों के यहाँ गुमास्ते का काम करते विहागे तांबूलियों में प्रधानतः प्रादि वासस्थानके हैं। इसके मिवा बहतीन उच्चतर जीविकाका अवलम्बर भेटसे कई एक श्रेणियां हैं, मगछिया, तिरहतिया, कर लिया है। जो षिकाय करते हैं, वे स्वयं हल नहीं कनोजिया, भोजपुरिया, कुरम, करन, सूर्य दिज आदि । चनाते। मतशूदक विषयमें जो पौराणिक वा स्मात बङ्गालके ताम्बूलियों में चौधरी, चन्न, दत्त दे, मूर, विधियाँ मिलता है, उनमें किमोने सेलोको और किमोने पान, पान्ति, रसित, मेन और मिंह, ये उपाधियों है। तमोलोको शुद्ध जाति माना है। पराशरके मतसे तेन्लो बिहारमें भकत खिलोबाला. नागवंशी और पंटो उपा- ओर ब्रह्मवत्त पुराण के मतमे ताम्बूलो सत्शूद्र हैं। धियाँ है। विहार। इनमें बालाविवाह प्रचलित है, तथा लड़ बङ्गालमें अधिकांश स्थान के साम्बूलो वेश्या चार मानते कोवालेको दहेज देना पड़ता है। वश-मर्यादाके अनुमार हैं। ये पंगाम, गोर्चा, ईटा पादि गल्कोन मत्सा नहीं दहेजमें कमोवे शो होती है। हरिद्रात वस्त्र वा पोत- खात। वा के रेशमी वस्त्र अथवा पदृश्वस्त्र बनके वैवाहिक पूमाके तंबोलियाँने पेशवानों के समयमें मतारा पोर यसन है।ये नवशाख श्रेणोके अन्तर्गत: किन्त विध. अहमदनगरसे आ कर वहां पानका व्यवसाय किया वाएं नाग कायस्यों को विधवाघों क समान पाचरण था। ये मराठी कुनबियों के माथ पाहार-यवहार करते करती हैं। बङ्गान और उड़ोमामें विधवानों का हैं, पादान-प्रदान भी होता है। इनमें महाराष्ट्रीय उपा- पुनर्विवाह नहीं होता । विहारमें विधवानों का दूसरा धियां प्रचलित है । समोपाधि व्यक्तियों में परस्पर पादान- विवाह हो जाता है। विधवा लिए कनिष्ठ देवरके प्रदान नहीं होता। ये कत्था चुना सुपारी पोर पान साथ विवाह करना हो प्रश'साजनक है। धरेजा होने बेचते हैं। इनको स्त्रियां रोजगारमें शामिल नहीं होता। पर भी इसको कुमारी विवाह से कुछ होन नहीं लड़कों को पाया नहीं जाता। इनमें कुछ मुसलमान समभात। पंचायतको अनुमति ले कर स्नोको त्याग भी है, जो यथार्थ में कुनवो थे ; पोरराजेबके प्रभावमे सकते हैं। परित्यता स्त्रो फिर विवाह नहीं कर मुसलमान हो गये हैं। ये पापसमें चिन्दी पोर दूसरों- सकतो। के साथ मराठी बोलतानकी पोशाक मराठी मो Vol. Ix. 111