पृष्ठ:हिन्दी विश्वकोष नवम भाग.djvu/४६९

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वारा जन्मतारासे गणना की जाती है। चन्द्र और तारा कहा है, कौषिकोने वणवणं को कर कालिकाका शुद्धि होने पर अन्य ममम्त दोष नष्ट हो जाते हैं।* रूप धारण किया था, कालिका मर्व मयो है। सारा विशेष विवरणके लिए नक्षत्र शब्द देखो। विश्वमयो धरित्रीरूपिणो और सर्वसिद्धिदायिनी है। ४ दश महाविद्याओंमसे पहलो विद्या। साधकको यदि तारामन्त्रादिका ज्ञान हो तो वह शीघ्र 'काली तारा महाविद्या षोडशी भुवनेश्वरी । हो मुक्ति लाभ करता है। नमको अनर्गल कविता कहने भैरवी लिनमस्ता च विद्या धूमावती तथा ॥ की शक्ति हो जाती है और वह सर्व शास्त्र में पाण्डित्य बगला मिद्धविद्या च मातंगी कमलात्मिका । माभ कर धनपति हो जाता है। एता दश महाविद्या सिद्धविद्याः प्रकीर्तिता।" ५ वृहस्पतिको स्त्रो। एक दिन अङ्गिरातनय चन्द्र ( सन्त्र मार ) ताराक अलोकसामान्य रूपको देख कर उन्हें हरण कर कालो, ताग षोड़पो भुवनेश्वगे, भैरवो विनमम्ता, ले गये । वृहस्पतिको मालभ होते को उन्होंने देवतापोंसे धूमावतो, बगला, मातङ्गो और कमला, ये दश महा. कहा। देवताओंने ऋषियों के साथ मिल कर चन्द्रसे तारा विद्याएं हैं। मांगो। परन्तु दुर्बुडि मोमदेवन ताराको लौटाया नहीं। मतीने दक्ष में जानके लिए महादेवमे बार बार इस पर देवाचार्य वृहम्पति अत्यन्त ऋड हो उठे । शुक्रा- अनुमति मांगो थो, किन्तु महादेवन किमो तरह भो चार्य उनके पश्चात्वर्ती हए । महातेजा रुद्र पहले वृहस्पति- उन्हें जानको अन ति न दो। इम पर मनोने धरे धोरे के पिता अङ्गिगके शिष्य थे, वे भो गुरु-पुत्रके स्नेहके महादेव डग के लिए उता दशरूप धारण किये थे। कारण हम्पनिके पृष्ठपोषक हुए । महात्मा रुद्रदेव, जिस पोले महादेव भयमेतदो र उन्हें दक्षालय में जान- ब्रह्मशिव नामक परमास्त्रका प्रयोग दे त्यो पर किया गया को अनुमति दी थी। दाविद्या देखो। था और उममे दैत्याको यशोगशि विनष्ट हुई थी, उसो प्रथमा तारा हो और हितोया महाविद्या. ( श्लोकमें अतिभोषण आजगव शगसनको धारण कर युद्ध के लिए "कानी तार महाविद्या' है । एमा नहीं; कालो और प्रवृत्त हुए । ताराके लिए इम युद्धका प्रारम्भ हुअा था, ताग टोना हो अाद्या महाविद्या हैं। कालिकामे हो इमलिए यह तारकामय माममे प्रमिद्ध हुआ। इस देव- ताराको उत्पत्ति है। दानव-मभरमें अनेक लोगों का क्षय होने लगा। पाखिर देवनि अनन्योपाय हो कर ब्रह्माकी शरण लो । देवाको

  • "जन्मसम्पतविपत्क्षेमप्रत्यारि: माधकोवधः ।

प्रार्थनामे लोकपितामह ब्रह्मा स्वयममरभमि पर पाये। मित्र परममित्रंच नवतागः प्रकीर्तिताः ॥ उन्होंने शुक्राचार्य और शङ्कर रुदेवको सान्त्वना दे सर्वमंगलकर्माणि त्रिषु जम्मसु कारयेत् । कर युद्ध से निवृत्त होने का प्रादे ग दिया और ताराको विवादश्राद्धमेश्ज्ययात्राोगदिविवर्जयेत् । चन्द्रमे ले कर वृहस्पतिको अर्पण किया। उस समय यात्रायां पथिन्धन कृषिविधौ सर्वस्य नाशो भवेत् ॥ साराको अन्तःमत्वा देख कर वृहस्पतिने कहा-"तम भैषजो मरणतथा मुनमत दाहो गृहारम्भणे । मेरे क्षेत्रमें अन्यजनित गर्भ धारण न कर सकोगी।" क्षौरे रोगसभागमो हुविधः श्राद्धेऽर्थनाशस्तदा । सारान उमो ममय गर्भस्थ पुत्र दस्युहन्तमको प्रमव कर वादे बुद्धिविनाश'युधि भयप्राप्तोत्यय जन्मभे । शरम्तम्ब पर फेक दिया । मद्य प्रसूत कुमार शरस्तम्ब पर पापाख्यातु त्रिविधा चचतुर्दश विशतित्रिषुता । गिर कर ज्वलन्स पावककी तरह दोप्यमान हों गया, सिद्धिफलावृद्धिकरी विनाशसंज्ञाकमात् कथिता ॥ उमको शरीर-कान्तिसे देवगणा मानो तिरस्कृत होने लगे। ताराचन्द्रले प्राप्ते देष चाम्ये भवन्ति ये। देवौन मशयापन हो पूछा- "दवि! सत्य कहना, यह ते सर्वे विलय' यान्ति सिंह दृष्ट्वा गजा इव ॥" पुत्र मोमदेवका है या रस्पतिका?" किन्तु ताराने कुछ (श्रीपतिसपुचय) उत्सरन दिया। इस पर सद्योजात दस्य इसम अपनो Vol. IX. 117