पृष्ठ:हिन्दी विश्वकोष नवम भाग.djvu/५१०

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५०६. परिच्छेद होता, उम ममय चन्द्र पोरयंक गति हम चन्द्रमबलके जिसपको देखतापाय विशेषका पायय करके तिथिका रूप निर्णय करना अब सूर्य किरण द्वारा मवतोभावसे प्रकाशित होता, चाहिये। ममग्र नक्षत्र बारह राशियोंका भीग करते तब उमे पूर्णचन्द्र कहते है और उसी दिन पूर्णिमा है, ३० अंशोंमें राशिका भाग होता है। सूर्य मे निकल तिथि होती है । उस उज्वन शको न्य नाधिकाताके कर चन्द्र अब तक विशत्-भागामक गणिक हादश अनुमार चन्द्रवासाकी कासवद्धि होतो है, इसलिये तिथि भागमें गमन करता है, तब तक चन्द्रमातिथि अर्थात् भो प्रतिपदा पादि नामों से पुकारी जाती है। समाव. शुक्लपक्ष है । 'विष्णुधर्मोत्तर) चन्द्र नित्य राशिचक्रके मध्य स्याके बाद रामा-हितियामें चन्द्र पश्चिमदिशाम सदित १३५ १० कला २४ विकला ५२ अनुकला पवित्र होता है तथा उस तिथिसे चन्द्रमण्डलका पश्चिमांश सूर्य दिशामे पूर्व दिशाको गमन करता है। सूर्य प्रतिदिन किरण द्वारा क्रमश: एक एक कला प्रतिदिन बढ़ता है पश्चिम दिशामे पूर्व दिशाको ५८ कला ८ विकला गमन और अन्त में पूर्णिमा दिन पूर्ण चन्द्र हो कर प्रकाशित करता है। इस तरहसे चन्द्र सूर्य से दिन दिम १२ अंश । होता है। पौर जब नाणपक्ष प्रारम्भ होता है, तो प्रति ११ कला ४७ विकला गमन करने पर एक एक तिथि दिन चन्द्रमण्डल के दृश्य पसे एक एक कलाका झास होती है । यह मध्यगति हारा मठित होता है। किन्तु हो वार पमावस्या के दिन चन्द्र सम्म रूपसे पहण्य हो चन्द्र और सूर्य की पीघ्रगति और मन्दगसिके अनुसार जाता है। इसका व्यतिकम भी हुमा करता है। स्फुटगणना बारा शुरूपक्षको प्रतिपदासे ले कर पूर्णिमा तक चन्द्र ज्योतिर्विद विहानोंने स्थिर किया है, कि चन्द्र के सबसे क्रमशः सूर्य से दूरगामी होता है, एवं तदनुसार चन्द हादश श गमन करने पर एक एक तिथि होती है। महलका प्रदील पंश पृथिवीके समीपवर्ती हो कर प्रका. इस प्रकारले ३६० श गमन करने पर प्रतिपद प्रादि शित होता रहता है। शुक्लपक्ष प्रतिपदासे ले कर ३० तिथियाँ एषा करती है। जब चन्द्र में वृद्धि और आय पूर्णिमा तक चन्द्र अपने वृत्त वा पथमें १८० अशचमण होता रहता है, तब उसे शुक्ल पोर लष्णपक्ष कही है। करता है तने समय तक चन्द्र सूर्य से (पृथिवीके सम्ब- सकाष्टमी के दिन चन्द्र सूर्यमे ८० अश पूर्वा में अवस्थित बसे ) पश्चिममें अवस्थित रहता है और कृष्णपक्ष में रहता है, इस कारण उस दिन प्रचन्द्र दिखलाई पूर्व की ओर अवस्थित होता है। इस तरह चन्द्र जितना जितमा सूर्य के पास पहुंचता जाता है, उतना ही पृथि- चन्द्र स्वयं तेजोमय नहीं है, सूर्य रश्मि हारा चन्द्रमै बोके लोगोंको उसमें से एक एक कला घटती दिखलाई प्रकाश होता है। इसलिए चन्द्रमगडलके एक पोरका देती है। अन्समें अमावस्या के दिन इमो समस्त प्रदीप्त हिमा लगातार १५ दिन तक दौनिमान पौर दूसरी तरफ अंश पृथिवीमे विपरीत दिशाको पोर हो जात. पौर का हिस्सा नियत तिमिगहत रहता है। तिमिराहत प्रश पृथिवौके सामने पा जाते। "तरणिकिरणसंगा देष पीयूषपिण्डो तिथियोंकी व्यवस्था :-जो :प्रतिपदा विसध्याश्यापिनी दिनकरदिशिचन्दश्चन्द्रिकाभिश्व कांति । होतो है, वहो प्रतिपदा ग्राध है; इसमें युग्मा- तदितरदिशि वालाकुम्तलश्यामलश्री: दरता अर्थात दो तिथियोंका पूज्यत्व नहीं है। केवल घठहब निजमूर्ति छाययैवातपस्थः ।।" (ज्योतिष) विसन्ध्याष्यापिनी तिथि पूज्य है। यह सर्वव हो होगो, चन्द्र के जो शव को पोर होते हैं, वे होश सिर्फ हरिवासरमें रसके भेद होते है। णपक्षीय प्रति. सूर्य की किरण पा कर प्रकाशित होते हैं। इसके सिवा पदा ,प्रमावस्यायुक्त होने पर पादरणीय है। परन्तु चन्द्र पन्ध पंश वाला स्त्रीके केशों के समान श्यामवर्ग उपवास के लिये ऐसी व्यवस्था नहीं पात प्रतिपदाके दिन है। जैसे धूपमे रक्वे हुए घईका एक हिस्सा पपनो उपवास करना हो तो जाणा-दितीयायुक्त प्रतिपदाको उप- . यावे माता , उसो त रसको भी समझ। वास करना चाहिये ।