पृष्ठ:हिन्दी विश्वकोष नवम भाग.djvu/५१७

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विवि एकादशोके दिन पतितवाद और सपिण्डीकरण काम्यत्व है। और यदि एकादशी में योग न हो कर बाद पादि करना पड़ता है। पतितश्राद्ध देखो। शो में योग हो, तो एकादशी और हादशो दोनों दिन हादशी।-युग्मत्त्व हेतु अर्थात् युग्मादर युक्त हादशो उपवास करना पड़ेगा। श्रवणानजनके पवमानमें पारण ही प्रशस्त है। किया जाता है। वैशाख मासको शुक्ला हादशीको वैष्णवो तिथि वा अनायगा मामको शका हादगीको अरबण्ड हादशी पिपीतको हादशी कहते हैं । अतएव उस दिन पिपोत कहते हैं। को व्रत करें। ___ फाल्गुन मासको शुक्ला हादशों में पुथा नक्षत्रका योग ज्येष्ठ मामकी शला हादशीको विशोका-हादशी होने पर वह गोविन्दवादशो कहलाता है। उस दिन करते हैं। उम दिन विष्णुको पूजा को जाती है। गङ्गासान करनसे महत् फल होता है। गङ्गाखानका भाषाढ़ मासको राला हादशीको रातको विष्णुका मन्त्र - शयन, भाद्रको शुक्ला हादशीको पावं परिवर्तन और __महापातकसंज्ञानि यानि पापानि सन्ति । कार्तिकको शक्ला द्वादशीको उनका उत्थान होता है। गोविन्दद्वादशी प्राप्य तानि मे हर जाहवि ॥" यद्यपि उक्त तिथिको अनुगधा नक्षत्र होता है, तो भो त्रयोदशो।-शुका त्रयोदगो हादशोयक और लण्णा वह उत्तम है, नहीं तो तिथिमाहात्माके कारण रात्रिक त्रयोदशी चतुर्दशीयुक्त हो प्रशस्त है। ममय विष्णुका शयन करावें। श्रवणा नक्षत्र में पार्ख भाद्र मासको कष्णा त्रयोद गोमें यदि मघा नक्षत्रका परिसन और रेवतो तमनमें उत्थान करावें। विष्णु का योग हो, तो मधु ओर खोरमे पितरोंका थाड करें। स गनिमें शयन, दिन में उत्थान और मध्याको पावं परि- जगह विचार कर देग्वे, कि श वचनमें मधु और क्षोरसे वर्तन करावें। मनुवचनमें यत्किञ्चित् मधुमे और विष्ण धर्मात्सरमें उक्त यदि उता नक्षत्रोंको तिथिमें मम्यक योग न हो, तो थाइ नित्य कहा गया है। किन्तु अब मिर्फ मधु और पाद योग होनेमे भी उक्त कम अर्थात् शयनोत्थानादि फोरमे करना चारिये । म मन्देहको दूर करनेके लिये को । विष्णु, किसी ममय भो दिनको शयन और रातको विषण धर्मात्तर और शातातपमें इस प्रकार लिखा है- उत्थान वा पार्श्व परिवर्तन नहीं करते। "पितर: स्पृहयन्त्यनमष्टकासु मघासु च । यदि शयन, पाश्व-परिवर्तन और उत्थानको हादगी तस्माद्दद्यात् सदोत्युक्तो विद्वन्स ब्राह्मणेषु च ॥" में उक्त नक्षत्रोंका योग न हो, तो एकादशी, त्रयोदशो, (शातानप०) चतुर्दशी, और पूर्णिमा इन चार तिथियामिमे जिम तिथि "मघायुक्ता च तत्रापि शस्ता राज त्रयोदशी। में नक्षत्रका पादयोग हो, उमी तिथिमें शयनादि कृत्य तत्राक्षय भवेत् श्राद्ध अधुना पायसेन च ॥" • करें। किन्तु एकादशीमे पूर्णिमा सक किमो भो तिथि- ( विष्णुधर्मोत्तर) में नक्षत्र योग न होने पर, हादशो में संध्याके समय उक्त इम जगह प्रथमोल वचनमें ब्राह्मणके लिये पवसे कार्य होंगे। यदि हादशी के दिन रात्रिको रेग्तोका मधाष्टकादि समस्त अष्टका याद करनेकी और दूसरे पन्सपाद हो, तो दिनके दृतीय भागमें उत्थान होगा। वचनमें मधु और क्षोग्मे श्राद्ध करने को विधि है । इस भाद्रको शक्लपक्षीय दुवादशीमें यदि श्रवणा नक्षत्रका जगह स्मार्त भट्टाचार्य ने ऐसा कहा है-"तवाखषुक योग हो, तो उस तिथिको श्रवणाहादयो और विजया कृष्णपने पत्र मत् थाई तन्मधुयोर्गन पायसयोग न वा हादशी कहते हैं। उस दिन उपवाम और विष्णुपूजा क्षय भवेत् ।” और मधु-वचन के स्थान पर 'अतोऽत्र सुतरां करनेसे अत्यन्त फल होता है। यदि उक्त नक्षत्रं एका शूद्रस्याप्यधिकारः" ऐमा कहा है। दगोमे युक्त हो, तो एकादशी के उपवाममें हो हादशोके आश्विन मामके दशवें दिन तक हस्ता नक्षत्रका अधिः उपवासका फल होगा। क्योंकि हादशीसे एकादशीका कार है, अर्थात् १० दिन तक सूर्य हस्तानक्षत्रमें रहता है। Vol Ix. 129