पृष्ठ:हिन्दी विश्वकोष नवम भाग.djvu/५९२

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५८० तिरुमुवन्तुर मनुष्योंसे भर जाता है। मध्याके बाद हो अरुणाचन. ३ कोस पूर्व में अवस्थित एक स्थान । यह एक प्राचीन श्वर और अपोनकुचाम्बन्न देवाको उत्सवमूत्ति नाना शिवमन्दिर है, जिसमें बढ़त मे गिलालेख देखे जाते हैं। मणिमुक्ताक अलङ्कारम भूषित कर कधे पर मगप तिरुवयार (तिरवाड़ी)-मन्द्राज के अन्तगत तखोर तालुक स्थानमें लाई जाती हैं। मुम्नस्थानसे । न्वत कपूरका और जिले का एक शहर। यह प्रक्षा० १०५३ उ० पोर प्रकाश कपड़े में ढाक कर प्राङ्गणक मध्यस्थल में लाया देशा - ७८६ में सञ्जोर शहरमे ६ मोल उत्तर कावेरो जाता है । उसो समय एक प्रकारको प्रातशबाजो होती नदी के किनारे अवस्थित है। लोकमख्या प्राय: ७८२१ और तब कपूरक प्रकाशका प्रावरण अलग किया है। तोर के प्रथम अाक्रमण के समय शिवाजाने यहां जाता है। पातशमाजोक ऊपर जान पर प्रकरणाचलका स्कन्धावार स्थापित किया था। यहां पत्थरका एक प्राचीन मच्चिङ्गा प्रकाशम्य हो जाता है। वहाँ एक गड शिवमन्दिर है। मदिर देखनमें सदा और कारकाय- जिस स्थलपुगण के मतम भगवतोको तपस्या का अग्नि- विशिष्ट है । इनको गिनतो प्रधान तोों में की गई है। कुण्ड कहत हैं। दम कुगडमें पहनेमे वो, नया कपड़ा उत्सव ममय हजागें यात्रो एकत्रित होते हैं उत्सवका और कपूर इत्यादि दये जाते हैं और वहां एक मनुष्य नाम सरथमान है। इस स्थानक देवताका नाम तिरु- राधना ले कर हमेशा बड़ा रहता है। मन्दिर प्राङ्गणसे नन्थि वा विनंदिकेश्वर है । एक तो उत्सव, टूमरे पञ्च- पातशबाजो अबर उठन पर हो उस कुण्ड में भाग उत्पत्र नाथो नामको पुष्करणो में नान करजेक लिये यात्रियोको और यह प्रकाश बहुत दूरसे देख में प्राता संख्या भोर भी बढ़ जाती है। यात्री बहुत दूर दूर है। यहां के बहुतसे लोग इस दिन उपवासो रहते और देशोंसे पाया करते है। दशहरा के दिन गङ्गाखान प्रकाशको देख जलग्रहण करते हैं। इस मन्दिरका खर्च करने में जो फल लिया है, वहो फल पञ्चनाथो में भी निभनिक नये टिश-सरकार प्रति वर्ष हजार रुपये मान . रनेका है। शिवमदिरके प्राङ्गणमें यह पुण्य देती हैं। मन्दिरके अभिभावक धर्म कर्ता' नामसे सरसो अवस्थित है। कहते हैं न्यायमित्र नामक किसो पुकारे जाते हैं। प्रवाद है, कि गौतम मुनिने यहां तपस्या ऋषिन यहां स्वयम्भू शिवलिङ्गको तपस्या को थो । तपस्या- को थो। वे चिरजोत्री हैं, अभी भी हर एक रातको वै से मन्तुष्ट हो कर शिवजोने उनमे कहा, 'लिङ्ग मूत्तिके अकणाचलेश्वरको पूजा कर जाते है। समोप उत्तरको पोर तीन गोष्पद चिह्न हैं। उन्हीं को २०मे ४० तक ब्राह्मणकुमार यहा वेद अध्ययन कर खोदनसे आपको मनस्कामना पूरो होगो।' तदनुसार सकते है नित्य प्रति जो नियमित भोग चढ़ाया जाता है, ऋषिने जब उन्हें खोदा, तो पहलेमें टोका, दूभर में उभे अभ्यागत ब्राह्मण और पूजक लोग पति हैं । दाक्षिणा चूना सुरखोका और तोमरमें सोने का ढेर मिला। बाद त्यक नियमानुसार इस मन्दिरमें भी देवनर्स को हैं ऋषिने उमो सामानोंसे स्वयम्भू लिङ्ग के अपर वर्तमान जिनको मख्या लगभग ५० है। मन्दिर बनवाया । सरथस्थान के विषयमें प्रवाद है, कि यहां बहुतमे धर्म क्षेत्र है, जहां प्राह्मण यात्रो तीन त्रिशूली नामके कोई ब्राह्मण थे। शैशवकालमें जब वे दिन तक बिना खच के भोजन पाते हैं। शूद्र जातिके जङ्गलमें खेल रहे थे, एक ऋषिको दृष्टि उन पर पड़ गई। लिये पृथक धम शाला भी है जहां वे केवल रह सकते कौतुक करने के लिये बालक त्रिशूलोने ऋषिके भिक्षापात्र- है, किन्त भोजन नहीं मिलता। रसोई करनेक लिये में पर्थदान के बहाने एक लोष्ट्र डाल दिया। ऋषि बिना खतन्त्र घर हैं। कुछ कह चल दिये। वयःप्राप्त होने पर त्रिशूली इस इम देगक नटकोटा शेठो प्रधान धनो है। उन्होंने सामान्य घटनाको भूल गये। क्रमशः विवाहादि कर पनिक स्थान अनेक देवालय और यात्रियोको सुवि- संसारधर्म में प्रवृत्त हुए। बहुत दिन बीत गये, पर उन. धाक लिये बहुतसे छत्र बनवा दिये हैं। के एक भी सन्तान न हुई। अतः वे बहुत दुःखित हो तिरुमुवत्तर-दक्षिण-पाट जिले के विल्वपुरम् शहरसे , मामा धर्मानुष्ठान और व्रतनियमादि करने लगे।. एक