पृष्ठ:हिन्दी विश्वकोष नवम भाग.djvu/६०४

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५९२ बाम बार पर बोधर, बाम नश्वरमें अषोकथ, पृष्ठ पर बोच छिद्र नहीं करते, नराधम'; एवं उनके पानाभोर कटि पर दामोदरका नाम लेकर तिलक लगाट पर वा तिलक कुत्ते के परके समान है। यदि लगाना उचित है । (म.' तिमके लगाते समय नलाट किमी हिजातिके मस्तक पर इस प्रकारका तिलक दीख पर प्रथम उध्वं पुगड. धारण करना चाहिए । फिर लन- पड़े तो क्षणके नामका सारण कर वससे मुंह ठक टादि पर क्रमशः तिलक लगाना चाहिए। ( पपपु.) । लेना चाहिये। मम्प्रदायानुसार मर्वार्थ सिहिके लिए मस्तक पर ललाटके दक्षिण में ब्रह्मा, बामपाख में महेखर पौर करीटमन्च (न्यासपूर्वक) धारण करना चाहिए। बोचमें विष्णु वास करते हैं, इसलिए बीचका पंश शून्य किरीटमन्त्र-"ओं श्रीकिरीट केयूरहारमकरकुण्डल-चक्र रखना चाहिए। गोल, टेढ़ा, छिद्र होन, छोटा, लम्बा शंख-गदा-पग्रहस्त पीनाम्भाधा श्रीवास्यांकित-वश:स्थल श्री । और विस्थत, ये षा लक्षणयुका तिलक निरर्थक है। भूमि-हित स्वारमज्योतिरी तिकगगनहनादिस्यतेजसे नमो नमः ।" त्रिपुण्डका प्रमाण दोध होगा ; नासिका मूलसे (हरिभक्तिवि० ४ वि. ) ' लेकर धान्न सका शूदके लिए इसका प्रमाण एक अङ्गन ललाटादि हादश अगों के तिलक हरिमन्दिरके माममे और ब्राह्मणों के लिए चार अङ्गल है। नासिकको तोन प्रसि । भागों में विभक्त करने पर जो भाग होता है वह अर्थात् वाम पक्षः, नेत्रान्त, शुगड़ और स्वान्ध, इन स्थलों पर भ्य इयके मध्यभागके अधास्थानको विहानोंमे मन या चिजित सिम्लक करना चाहिए। इसी प्रकार दक्षिण कहा है। नेवान्त पादि स्थल पर चक्र चिकित तिलक लगाना ब्रह्मचारी, वानप्रस्थ, रहस्य और यतिगण जो जव चाहिए। पुगड़क करते है, उसका नाम है हरिमन्दिर। वैष्णव ऊपर लिखे पनुमार हादश पङ्गों पर विष्णुका नाम विप्र, भूपास, वष्य, शूद्र और अन्तामों के जवं पुगड़की लेकर तिलक लगानेवाले वैषणवको प्रति दिन प्रेम और भी रिमन्दिर है। नर वा नारी यदि क्षणपदमें वित्त भतिको प्रालि होतो है। (हरिभक्तिवि०) लगानिकी रच्छा करें, उन्हें या पूर्वक तुल मो माला जो वैष्णव गले में तुलसीकाष्ठकी माला धारण करते, और हरिमन्दिर (सिलक ) धारण करना चाहिए। बादश भङ्गों पर पूर्वोन प्रकारसे तिलक लगाने और दगडाकार दो रेखाये मुलदेशमें कोणक (पर्थात् कोणयुक्त बोक्षण पर दृढ़ भक्ति रखते हैं, उनके द्वारा जगत् पाशु और मध्यमें छिद्रयुक्त होने पर उसे जर्व पुराड कहा जा पवित्र होता है। माता। (पद्मपु०) मध्यदेश छिद्रयुक्त अर्थ पुण्याख्य तिलक हरिमन्दिरके अधोमुख पनकलिकाके प्राकार, मध्यदेश छिद्रयुक्त नाममे प्रमिह है। यह तिलक नामिकामूलसे लेकर मोर दो युग्म रेखाएं होने पर, उसे अव पुराङ्ग तिलक शिरोमध्यगत पर्यन्त लगाया जाना है। करते हैं। तीर्थ-मृत्ति का, याकाष्ठ, विल्व, पखस्थ पोर अर्ध्वपुण्डके बीचमें पोलो रेखा होने पर, वह रामा- तुलमो मूलको, मृत्तिका गोष्पदमृत्तिका, गङ्गा-मृसिका, नुजतिलक कहलाता है। ( पत्मपु०) महानिम्ब, तुलसोकाष्ठ-मृत्तिका, कस्त री, काम. फला, जो लोग रामोपासक हैं, उनके तिलकमें यदि जल मिन्दर रजा-चन्दन, गोरोचन, गन्धकाष्ठ, जल, प्रगुरु, पुगजक तथा भ्रदय के बीच में बिन्टु हो तो उसे हरिके । गोमय और धात्रीमूलके द्वारा सन्ध्या पादि सम्पर्ण मत्सयादि अवतारोंको उपासकोका तिलक ममझना कार्यो में तिलक लगाया जा सकता है। पापिये। प्रति दिन बान करने के बाद तिलक लगाना सभो नावों को ऊर्ध्वपुण्डक करना चाहिए , बबियोके वर्णका कर्तव्य है। नित्य, नैमित्तिक, काम्य लिए भो एसो ही व्यवस्था है वैश्यों और शूद्रों को वे सोन प्रकार के कर्म तथा पखादि कर्म विना तिलक महलासति तिलक लगाना चाहिए। जो जयपुडके मिष्फल होते है। तिलक और दर्भ के विना खान, संधा