पृष्ठ:हिन्दी विश्वकोष नवम भाग.djvu/६२४

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सिली व्यवगाय निर्दिष्ट किया गया है, परन्तु जरा विचार करनेसे अनोमिवरुणो मेष: ऽसूर्योऽश्च: पृथिवी विराट ॥४१॥ सहज हो मालूम हो मकता है कि सिर्फ तिनो जातिमें नुवत्सश्च सोमो वै विक्रीय तन सिद्धति । ही नहीं, बल्कि ताम्ब लि, बालई, गन्धवणिक पादि का तेले का घृते ब्रह्मन् मधुन्युप्यौषधेषु वा ॥४२॥" ममो जातियों में बहुत ममयसे गुवाक वा सुपारोका अर्थात्-'जो गो-समूहका मुकमोषण और नासिका व्यवमाय प्रचलित है। फिलहाल तिनो जातिका कोई भेदन कर उनको गुरु-भारसे प्रपोड़ित, वह और दमित निर्दिष्ट व्यवसाय हो नहीं है। यह पहले ही कहा जा करते है तथा जो नाना प्रकारको ओवहिसा कर मांस चुका है कि यह जाति लषि, बाणिज्य, वावसाय, महा भक्षण करते हैं, उनको क्यों न निन्दा की जाय ? पो. जनो आदि हारा जीविका निर्वाह करती है। यह । न्द्रिय-विशिष्ट जीवमात्रमें हो सूर्य, चन्द्र, वायु, करना फिजम है, कि शास्त्रानुमार उपर्युत कार्य हो। ब्रह्मा, प्राणा, कतु और यम वास करते हैं; सुतरा जोवदेह वग्याजातिको उपजीविका के लिए योग्य है। विक्रय द्वारा जो अपनी देह त्याग करते है, वे भी क्या तिली शब्दका मुख्यार्थ तिलोत्पादनकारो है। पमरः निन्दनीय नहीं हैं ? छागमें पग्नि, मेषमें वरुणा, अश्वमें कोषक वैश्यवर्ग में इस प्रकार लिखा है- सूर्य, पृथिवीमें विराट तथा धेनु प्रोर वत्समें चन्द्र अव- "तिल्प तैलीनवन्माषोमाण्णुभगाद्विरूपता।" (२७) ___ स्थान करते हैं। इसलिए जो व्यक्ति रनको विक्रय करते पर्थात तिल्य और तैलोन शब्दसे तिलोत्पादक (क्षेत्रादि) हैं, उन्हें कभी भी सिद्धि प्राप्त नहीं होती। परन्तु तेल, का बोध होता है। तिलो शब्द 'सिल्व' और 'तलोन' वृत, मधु और औषध-विक्रय हारा किसो पापस्पर्य को शब्दका एकाथ वाची है । ऐसो दशाम तिलो शब्द भी मम्भावना नहीं है।' उधत विवरणसे धार्मिक वैशाका वैश्यवर्गीमें पड़ता है। क्या क्या कर्तवा है ? सो माल म हो जाती है। महाभारत शान्तिपर्व में तुलाधार वैश्य और जाजलि. मनुमहिताके दशवें अध्याय लिखा है- सवादमें लिखा है-.. "अप: शास: विष मांस' सोम गाव सर्वशः। "विक्रीणत: सर्वरसान् सर्वगन्धाय वाणिज । क्षीर सौदं दधि घृत तेल' मधु ण्ड कुशान् ॥" घनस्पतीनोषधीयाश्च तेषां मूलफलानि च ॥ अर्थात्-जल, शास्त्र, विष, मास सोमवल्ली, सर्व प्रकार अध्यगा नैष्ठिकी बुद्धिं कुतस्त्वामिद भागतम् । गन्ध, दुग्ध, क्षोर, दधि, घृत, गुड़, नैन, मधु और कुछ इन एतदावन मे सर्व निखिलेन महामते ॥” (२६१।२।३) वसनोको ब्राह्मण नहीं बेच मकता ; यह वैश्यके लिए आजलिने तुलाधारमे पूछा-'हे बणिक पुत्र ! तुम सर्व पालनीय है। परन्तु पापदकाल में ब्राह्मण भो उक्त वैश्यक प्रकार रम, सर्व प्रकार गन्ध, वनस्पति, पोषधि और फल- वावमायको ग्रहण न कर सकता है। मुन्न बेचा करते हो ; तुमने किम प्रकार ऐसा निश्चय पब देखा जाता है कि अमरकोष, महाभारत और बुद्धि और ज्ञान प्राप्त किया है ? हे महामते : मुझे सब मनुसंहिता अनुसार तिलोत्पादन, तिल और तन्न ममझा दो।' बचना वैश्यको उपजोषिकामें था। परन्त गाय वा बैल- इस प्रकार विस्टतरूपमै धम तत्त्व प्रकट करते हुए का अण्डकोष छेदम और मासिका मेदन निन्दित समझा सुलाधारकहा- गया है। कोल, जाति, कोलहमें जुत कर बिना सोच- "ये च छिन्दति वृषणान् ये च मिन्दति नस्त हुन् । के काम करेगा इस खयालसे, बेलका मुष्का छेदन करतो वहन्ति महतो भारान् वन्ति दमयन्ति च ॥३॥ और इसो निन्दितकर्म के हारा वह हिन्दू समाजमें इखा सत्यानि खादन्ति तान् कयन विगईसे अस्पृश्य एवं पतित समझी जाती है। सेलोजाति ऐसा प'चेन्द्रियेषु भूतेषु सर्व वसति दैवतम्। होग कम न करने पा भी चक्रमे जोत कर बेलको आदित्यान्द्रमा वायु ब्रह्मा प्राण: ऋतुर्थमः ॥४०॥ कष्ट देतो है । इसलिए वह कोल को तरह प्रतिहीन न तानि जीवानि विक्रीय का मृतेषु विचारणा । होने पर भी विपरीत पाचरण द्वारा वैश्यसमाजके बार