पृष्ठ:हिन्दी विश्वकोष नवम भाग.djvu/६३४

विकिस्रोत से
यह पृष्ठ अभी शोधित नहीं है।

६२६ है, वे सब काशी मिलते हैं, पन्य किसी में ऐसा | तोर्थ है, जिनकी मार नहीं। जहां भी बीई नहीं होता। (काशीख ३ म.) महापुरुष पाविभूत , अंधयो जहां विसो देव या ब्रह्मपुराण में तोर्थ का विषय रस प्रकार लिखा है,- महात्माने लोला को, धर्मपाल विन्दुोंने उसो खान- विश मनही पुरुषका तो । तो वहो यथार्थ को तोच मान लिया है। इसलिए समस तो नाम पोर पावश्यक है, जिससे प्रसारण निमेल हो, जब तक एकत्र प्रगट करके पन्नो कलेवरहरि करना चा। मन विश न हो, तब तक शिमो भो नोर्थ का फल प्राल . तीर्थों के नामानुसार उन्हीं शब्दोंमें विवरण दिया गया है। नहीं होता। जैसे मद्यपानको सो बार धोने पर भी वह यहां महाभारतके पनुमार कुछ पाचोन तो का पवित्र नहीं होता, उसी तरह प्रविश्वालामोको सेकड़ो किया जाता है। बार तोयं-जलसे धोये आने पर भो कभी फलको पुकर-सका नाम तीर्थराज है। इस तीर्थ- प्राति नहीं होती। दुष्टाशय दाधिक लोगोंका व्रत, दान में विसधा दश कोटि तोों का पागमन होता है। पादि सब निपाल। मनुष्य इन्द्रियाँको दमन करके इसमें बानादिकारने प्रश्नमेध यत्रका काम पौर ब्रह्म चाहे जिस जगह वास कर, वह खान उसके लिए पुखर लोकको प्रालि होती है। जम्ब माग-ससे प्रखध. मिधारणपादितोथ ही जाता। (परपु.) सहयफल पोर विशुपाहिोतो। तहलिका- तीर्थ में जा कर जिन चित्तका मल दूर नहीं पुत्रा, अम-रसा फल है दुर्गतिविनाश पोर ब्रह्मपानि । उनकी तीर्थ करने पर भी कुछ फल नहीं मिलता। अगस्त्य-सरोवर-समें सोन रात उपवास करनेसे वाज- प्रयागतोय में जा कर पितरोंका बार और केममुण्डन पेय यत्रका फल और भावभोजन करनेसे कौमारलोक करना चाहिये अन्यथा उचित नहों। तो यावासे को प्राप्ति होतो । धर्मारख-यहां करवाश्रम, पहले और तीर्थ से लौट कर पितरीका बाह करना उचित प्रबंध करत मी पापमय होता है। देवपित्तपूजा हारा माय मत धनो जो मानादिकाल तीर्थ यात्रा करते पखमेधफल और बलोककी प्रालि होतो है । ययाति- है, उनको तीर्थ यात्रा था। (मत्यपु०) पतन-यहाँ जाते हो पखमेधका फल होता है। सत्ययुगम-पुष्कर, बेताने मिषारण्य, हायरमें कुर• कोटीतीर्थ-यहां महाकाल नित्व विराजित रहते हैं। और कलियुगमे ग तीर्थ । तोच में बान करने पबमेध-तुल्य फल होता है। प्रतियह नहीं करना चाहिए। मारायवक्षेत्र, कुरुक्षेत्र, भद्रवट-नर्मदा नदी, या पितरोंका तर्पण करने धारापसी, बदरीनाथ, गगसामरसाम, पुष्कर भावार, पम्निष्टोम करनेका फल होता है। दक्षिणसिन्धु-- प्रभास, रासमडल हरिद्वार, केदार, सरस्वती, इन्दावन, यहां बचय पाचरण करनेसे पम्निष्टोम तुल्य फल और गोदावरी, कोगिकी) त्रिवेणी पावि तीर्थो में जो लोग प्राप्ति होती है। धर्मखतो नदो-यहा इन्द्रिय. कापूर्वक प्रतिमा करते है, उनको कुश्रीपाक नरकमें निग्रह करने ज्योतिष्टोम तस्य फल होता है। पई.दा. जाना पड़ता। सोर्थ में जा कर, प्राए कएलगत होने पयहाँ वशिष्ठाश्रम है. एक राति उपवास करनेसे परमी दान यापन करना चाहिये। काल मलमास सास गोदामके समान फल होता है। पितीर्थ- पौर यायोम निषित दिमको छोड़कर तीर्थ यात्रा करनो यहां इन्द्रिय जय करनेसे मवन्स यात कपिलादाम तुख्य साहिये। किन्तु गयाक्षेत्रको प्रयास में भी जा सकत, फल होता है। प्रभास-यहाँ इताशन सय विराजित पचासक्रान्तिम सभी तीर्य में जा मत। प्रतापन्निष्टोम मध्य फल होता है। मरसतो. स एथियो पर विसने तोथै सका निर्णय करना सागरसंगम-यहां बान करनेसे सहस गोदामतुल्य फल साथ एक पुराणों को साढ़े तीन करोड़ और तीन दिन उपानि रहकर देवतापों और पितरीका तोचीका गोल है। ऐसी दशा सम्म प तोर्थीका निर्णय पंवारनेसे पसमे धतुल्य फल होता है। जासभामा भारतबीतने वक्षन-यह दुर्वासानिमियो वर प्रदान किया