पृष्ठ:हिन्दी विश्वकोष नवम भाग.djvu/६३९

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वीर्य-वीर्षकर ६२७ दिन उपवास करमेमे महसे गोदानका फल प्राप्त होता १८ सखित सोर्थ, हाथमेक कोई विशिष्ट स्थान । दाहिने हाथ के अंगठे में उत्तरसे जो रखा गई है, उस- ___ कुशलवनतो) में स्नान और उपवाम करनेसे चन्द्रः का नाम ब्रह्मतीर्थ । पाचमनके समय इस ब्रह्मतोध- लोकको प्राप्ति होती है। देवद, कृष्णवेण्या-समुद्भव, में जल से कर पाचमन करना चाहिये। सजनी पौर ज्योतिर्मानहद और कण्वाश्रम, इन चार तीर्थो को अंगुष्ठ का भेषभाग पिलतीर्थ है। इस तीर्थ के हारा यात्रा करनेसे अम्निष्टोमयज्ञका फल होता है । पयोष्णो नान्दोमुखके सिवाअन्य समस्त वाय पिण्णादि दिये मदो में स्नान और तर्पण करनेसे मस्त्र गोटानका फल जाते हैं। प्रा.लिके अग्रभागमें देवतोयं इसके द्वारा तथा दण्डकारण्य, शरभङ्गाश्रम और कुशाश्रममें जानेसे देवकार्य करना चाहिये। कनिष्ठा पालिके अधो- दुर्गतिका नाश और स्वकुलोहार होता है। सूर्यारक, भागका नाम काय वा प्राजापत्य तो है; इसके हारा रामतोथ, सप्तगोदावर, देवपथ, तङ्गकारण्य, मेधाविक, पितरों के भाथ देवतापोंका कार्य किया जाता है।' कालचरपर्वत, देवद, त्रिकूटपर्वत, भर्ट स्थान, ज्येष्ठ (मार्क. पु. ३४११.३-१०७) स्थान, शृङ्गवेरपुर, मुजावट पादि तीर्थो में स्नान, दान, २. मन्यो प्रादि राष्ट्रको अठारह सम्पत्तियां, जिनकी पूजा, तर्पण आदि करनेसे अश्वमे धादि.यसका फल और ___माम इस प्रकार है-१ मन्त्रो, २ पुरोहित, २ युवराज, स्वर्गलोककी प्राप्ति होता है। ४ भूपति, ५ हारपाल, ६ पन्तवंशिक, ७ कारागाराधि प्रयाग, वासुकोतोय, अयोध्या, मथुरा, गया, कारी, ८ द्रव्यसञ्चयकारक, ८ अत्यातमें अर्थ का विनि- काशो, काञ्ची, अवन्ता, पुरो पोर हारावतो ये मब तार्थ योजक, १० प्रदेष्टा, ११ नगराध्यक्ष, १२ कार्य निर्वाण. मोक्षदायक हैं। पुष्कर, केदार, समतो, भद्रमर आदि कारक. १३ धर्माध्यक्ष, १४ सभाध्यक्ष, १५, दगडपाल, तीर्थ पिटकार्य के लिये प्रगस्त है। वंशोझेद, हरोझेद, १६ दुर्गपाल, १७ राष्ट्रान्तपाल, १८ पटवीपाल । राजा गङ्गो द, महालय, भद्रं वर, विष्णु पद, नर्मदाहार और इन अठारर तोर्थो में अवगाहन करके सत्य होते हैं गया ये सब पिटनोथ कहलाते है। गयाको तरह यहाँ अर्थात् इनको भलोभांति जान लेनेसे हो राजा राजकार्य भो पिण्डदान करनसे मुक्ति होता है। ये तोर्थ ममम्त सुचाररूपमे चला सकते हैं। ( नीलकंठ) पापको हरण रजवान हैं। इनका नामस्मरण करनमे २१ पुण्य काल । २२ वह जो तार दे, तारनेवाला। को अधिक पुण्य होता है, पिण्डदानको तो बात हो २३ ईश्वर। २४ अतिथि. महमान। २५ पितामाता । क्या ? गया गोष, अक्षयवट, अमरकण्ठकपर्वत, वराह- २६ वैरभावका व्याग कर परस्पर उचित व्यवहार। पर्वत, नम दातोर, गङ्गा, झुगावतो, वित्वक, सुगन्धा, २७ जलाशयका परनिमात्र प्रदेश । अरविमान शाकम्भरी, फल्गु, महागङ्गा, कुमारधार।, प्रभाम, सर- स्थानको छोड़ कर शौचकार्य करना चाहिये। । स्वतो, प्रयाग, गङ्गासागरसङ्गम, नैमिषारण्य, वाराणमो, (भाविकतत्त्व ) अगस्त्याश्रम, कोशिको, मरयूतोर्थ, शोणो, योपार्वती, २८ सन्यासियोंकी उपाधिविशेष । जो सत्वमस्वादि विपासा, वितस्ता, शतद्र, चन्द्रभागा और ईरावतो. ये सब तीर्थ बाइके लिये प्रशस्त हैं। (विष्य संहिता) लक्षणरूप त्रिवेणीसङ्गममें तत्त्वाथ भावसे सान का अपर जो कुछ तीर्थीका फल कहा गया है, वह सब क प हा ताथ उपाधिक याग्य । २८ पवसर। उन्हीं के लिए है जो जितेन्द्रिय हैं। प्रजितेन्द्रियों के तीर्थ क ( स० वि०) तोर्थ कन्। १ योग्य, लायक। तीर्थ में जानसे उनका मन पवित्र होता है, विषयासति । पु. ) २ तीर्थ कारो, वह जो तोर्थो को यात्रा करता घट जाता है, इसलिए प्रत्येकको तीर्थ यात्रा करना उचित हो। ३ ब्राह्मण। ४ तीर्थ हार। है। तीर्थ में पापाचरण करनेसे वह पाप पचय हो जाता तो कर (सं.पु. ) तीर्थ शास्त्र करोति -ट १ जिन। है। अतएव तीर्थो में इस्त, पद और इन्द्रियोंको विशेष- २ विष्ण, । ये चौदह विद्याको वाचविद्यापोंमें प्रणेता तथा रूपसे संयत रखना चाहिये। . . . प्रवका , इन्होंने ज्यग्रोव रूप मा चौर कैटभको मार