पृष्ठ:हिन्दी विश्वकोष नवम भाग.djvu/६७६

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तुरि तुम क्षिप । अन्येषामपि दृश्यन्ते रति सूत्रण दौघान्द्र। का पूरण, चोथा। ३ तारक, तारण वा चार पारने- तुरादि शब्दके बाद सह धातुका जब बाढ़ रूप होगा वाला। (पु०) ४ चतुर्थी वैखरोरुप वाक.। तभो सह धातुका म षत्व होगा, पाढ़ रूप नहीं होनेमे वेदमें वाणो वा वाक्के चार भाग किये गये ... नहीं होगा। राषाट जनावाट, प्रभृतिका म षत्व हा परा, पश्यन्ति, मध्यमा पोर वखरो। वैखरी वाधका किन्तु त्वरामार, जमामाह प्रभृतिका म षत्व नहीं हा। नाम सुरोय है। नादात्मक वाणो मूलाधारसे उठो है। तुरि-एक युद्धप्रिय जाति । अफगानिस्तान के निकट इसका निरूपण नहीं हो सकता । इसोसे इसका नाम वर्ती कुरम नदोके किनारे इस जातिका वास है। इन परावाक हा। परायाक्को योगो लोग ही जान लोगोंमें ५५०० योता है । ये लोग दूसगे दूसगे मकते हैं, इस वारगा इसे पश्यन्तिवाक कहते हैं। फिर जातिके माथ मिल कर मोरवाह उपत्यकामें बहुत जब वाणो बुद्धिगत हो कर बोलनेको इच्छा उत्पब उत्पात मचाते हैं। यह अंगरेज-हषो हैं और सर्वदा करतो है, तब उसे मध्यमा कहते हैं । अन्त में जब वाणो अंगरेजाधिनत कोहाट जिलेमें न ट-पाट किया करते हैं मुवमें पा कर उच्चारित होती है, तब उसे वैखरी या तथा दूसरी जातिको भो अङ्गारेजोंके विरुद्ध उत्तेजित तरोय कहते हैं। इनमसे परादि सोन वाक्य हदय के अन्त करता १६५३६ में कमान कोकने एक दल तरि वर्तित्व के लिए भोतर रक्खे गये और चौथे तरो वाक्य मब विद्रोहियों को, जब वे नमकको खान खोदने जा रहे थे, कोई उच्चारण करने लगे। (ऋक् १।६४।४५ सायण ) पकड़ा था। १८५४ ई० में दोनों में मन्धि हो गई, लेकिन ५ सर्व धारभूत अनुपहित चतन्य परब्रह्म । थोड़े समयके बाद २००० तुरियोंने मोरनार पर पाक- वेदान्तमारमें इसका विषय इस प्रकार लिखा है,-वन मण कर मन्धि तोड दो। काबुल-युद्ध में (१८७८-८० वा तवस्य पाकाश भोर वृक्ष वा तत्रस्थित आकाश एवं में ) इन्होंने कोई उपद्रव नहीं किया था। जलाशय वा तहत प्रतिविम्बस्थित आकाशादिका पाश्रय- दाउदपुत्र, विजनोट, नोक, लोकायेट, एदुर पाटि रूप अनुपहित महाकाश को नाई यह समष्टि, व्यष्टि, स्थानों में एक दल तुरि वास करता है। ये लोग अपने प्रज्ञान, ओर तदुपहित चैतन्योका प्राधार जो अनुपहित टको किराये पर देते हैं किन्तु बाउरो पोर खेडगारा- चैतन्य है, उसे तुरोथ ब्रह्मचैतन्य कहते हैं। इस को नाई चोरी में प्रवृत्त होने के कारण ये लोग शैतानने विषयमें श्रुति प्रमाण इस प्रकार है- मङ्गलस्वरुप पहि- वंशधर तथा भूत-प्रेत कलाते हैं। सोय चैतन्यको चोथा मानते हैं। वे हो पात्मा है, वेहो तरि (म. स्त्रो.) तर-इन । सन्तवायका काष्ठाटि विनय हैं। जिस तरह दग्ध लोहपिण्डके साथ अभिव. निर्मित वयम-माधन, जलाहों का काठका बना हुआ रूप पम्नि "अयो दहति" इस वाक्यका वाच्य है, लौहपिण्ड तोड़िया नामका भौजार । . भिवरूपमें उसका लक्ष्य कहते हैं, उसी तरह यह समष्टि, तुरो (स० स्त्री०) तुरि-डोप । १ तुरि, जुलाहों का तोरिया व्यष्टि, प्रज्ञान, पोर तदुपहित चैतन्य के साथ अभिवरूप या तोडिया नामका यन्त्र । पर्याय-तन्त्रकाष्ठ, तुलो, । यह तुरोय चैतन्य “तत्त्वमसि" इत्यादि महावाक्यका वाच्य सुलि । २ जुलाहोंकी कूचो, इत्यो । (त्रि.)३ त्वगयुक्त, और भिवरूपमें महावाक्यका लक्ष्य होता है। वेगवाली। तुरोयक (सं० पु० ) सुगेय स्वार्थ क। चतुर्थ, चोथा। तुरो (हि. स्त्रो०) १ घोड़ो । २ बाग, लगाम। (पु.) तुरीयन्त्र (स• पु०) सूर्य की गति जाननेका एक यन्त्र । ३ प्रवारोहो, मवार। (प. स्त्री०) ४ फूलों का तरोयवर्ण (म. पु.) तुरीयः वर्ण: कम धा। चतुर्थ गुच्छा। ५ मोतीको लड़ों का झब्बा जो पगड़ीमें कानके वर्ण, शूद्र। पास लटकाया जाता है। तुरुप (हिं० पु. ) ताशका एक खेल। इममें कोई एक तुरोय (मवि० ) तुरोय अच् चतुर्णा पूरण: चतुर छ; रंग प्रधान मान लिया जाता है। इस रणका छोटेसे छोटा पाथमोपच । १ गतियुना, जिममै चाल हो। २ चतुर्थ- पत्ता भो दूसरे राजके बड़े से बड़े पत्ते को मार सकता है।