पृष्ठ:हिन्दी विश्वकोष नवम भाग.djvu/६९

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गेल असा देवता, ऋषि भोर पिद्धतर्पण देवतापों की पूजा, मन्या | साध्यानुसार की एकानको पासारादि देकर विद्या बन्दन, सायप्रात:म, वेदपाठ, गुरुके निकट सब शिक्षा देत १. विन्तु पालेको माई चारादिको शिक्षा प्रकारको विनति, गुरुके प्रति पिवत् भक्ति, गुरुका | कुछ भी नहीं दी जातो पाजकमा विजातीय बिचाके प्रमननासाधन, गुरजनके प्रति मम्मान । प्रावत्यमे इस तरहकी या प्रायः सोपसो हो गई है। निषेध-मधु, मांस, गन्ध, मास्य विविध रसास द्रव्य, | पहले ऐसा कोई पाम नहीं था, जहाँ २४ टोल न प्राणोहिमा, सर्वाङ्ग में तलमद न, दिन में शयन, चर्म रहे। भो १०१५ प्रामों में अनुसन्धान करने पर पादुका पोर छत्रव्यवहार. विषयाभिलास, क्रोध, लोभ, एक पाच टोल देखने में पाता, वा भी वितभावमें खोसङ्ग, नृत्य, गोते, वाद्य, प्रक्षादिकोड़ा (पासा ), परिचालित है। वर्तमान समय में टोलको ऐसो दुर- लोगों के साथ प्रथा कलह, दुर्वाक्य प्रयोग, दूसरे पर वस्था देख कर पहले की तरह जिममे यह प्रथा पब भी दोषारोपण, मिथ्या कथन, मन्द अभिप्राय, स्त्रियों को प्रव प्रचलित रहे, रमके लिये गवर्मेण्टसे अध्यापक पोर छात्र लोकन वा पालिङ्गम, दूसरेका निष्टाचरण, क्षोरकम । को वृत्ति देने की व्यवस्था कर दोगी। देश धनो एक बार दिनमें और एक बार रात्रिमें भोजन। उत और ज्ञानियों में भी कोई कोई टोलमापन पर पहले. विधि पोर निषेधात्मक व्रतनियम पालन कर ब्रह्मचारी को नाई' जिसमे मस्कत-शिक्षा प्रचलित हो, उसके लिये को संयतेन्द्रिय हो कर वेदादि शास्त्र पढ़ना चाहिये यत्नवान् हुए है। पाजल भारतवर्ष के कई देशों में टोल बालकके चित्तक्षेत्रको विद्याबोज बोनका उपयोगी संस्थापित हुया है। किन्त शिक्षाप्रणालो विजातीय बननाहो पाचारका मुख्य प्रयोजन है। नियमानुसार चलाई जाती है, पहले की नाईकुछ भी ___प्राचीन कालमें जो ऋषि जितनी शिष्यमख्या बढ़ाते नहीं। हम लोगों के टेपम मो पिता-प्रणाली थे वे उतने हो प्रधान गिने जाते थे। छात्रको मण्या | प्रचलित थो और जो कुछ रह भो गई है, उससे माल म अनुसार उनको भो उपाधि रहता था। उसी उपाधिसे | भोता है, कि किसो दूसरी सभ्यजाति ऐसी प्रथा प्रच. वे कितने शिष थको पढ़ात है, यह माफ साफ लित नहीं है। बिना अध को सहायताले कारीवालक जाता था। सो लिये कण्वादि ऋषि कुलपति कर शास्त्रवित् पण्डित् हो जावे, ऐसो प्रथा किसो जातिमें लाते थे- नधी और न है। हम लोगोंका धर्म बन्धन विहो 'मुनीनां दशसाहस्रं योऽन्नदानादिपोषणात् । जनिसे इस तरहका सुन्दर नियम विलुल हो गया है। अध्यापयति विप्रर्षिः स वै कुलपतिः स्मृतः ॥" ( मनु०) | धोरे धोर शानियों में जिस तरह इस प्रणालोका पादर . जो दश हजार मुनिको प्रबादि हारा पालन कर देखा जाता है, उससे बहुत जल्द इसको उबति होनेकी पढ़ाते थे, उन्हें कुलपतिको उपाधि मिलती थी। उस | सम्भावना है। समय प्रत्येक ऋषि अपने साध्य के अनुसार शिथको २ कुटोर, झोपड़ी। रखते और उन्हें पढ़ाते थे। जबसे नियमपूर्वक ब्रह्मचर्य | टोल (हि स्खो.) महलो, ममूर, जत्था। (पु.) को प्रथा अदृश्य हो गई. किन्तु शिक्षाका भार पहले को २ सम्म र्ण जातिका एक गग। इसके गानका समय २५ माई बाणों के हाथ में हो रहा, समोसे प्रक्षत शिक्षाका | दण्डसे ले कर २८दण तक। लोप हो गया है। प्रभो उपनयन के बाद सोनों वर्ण के | टोल (५० पु०) सड़कका महसूल बुगो । बालक गुरुग्राम आ कर अध्ययन ममाल करके हो | टोला (हि.पु.) १ महना, बड़ी वस्तोका एक भाग। घरको लौट पाने लगे है, अब कोई कठिन नियम कायम | २९गलोको मोड़ कर, पोछे निकलती हु ण्डीसे न रहा, प्रवमतिका सूत्रपात प्रारम्भ हो गया। इस मारनेको क्रिया, ठूग। ३ पत्यर या *टका टुकड़ा, समय पब केवल एक हो नियम रह गया है। अभी हम रोड़ा। ४ बैंत पादिको चोटका पड़ा हुपा चिह्न । ५ खोगोंके देखने को टोल प्रणाली प्रतित है, उसमें गुरु | बड़ी कौड़ी, कोड़ा, टग्या । (गुली पर डेको चोट। VoL Ix. 17