पृष्ठ:हिन्दी विश्वकोष नवम भाग.djvu/७५७

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७४. . . स्थिर तेलमें कार्वान, बारडोजन भोर पक्सिजन रहता - वि. चुत, मधित, वन, पिचित, भय, स्फुटित, हार है। विशेषण करनेमे हम न लसे दो तरह पदार्थ दम, अग्निदग्ध, विश्लिष्ट, दारित, पमिहत, दर्भग्न, निकलते है-सेलसार पोर लमोतिका तेल तर मगवालादि दारा दष्ट, इनमें तथा परिषेचन, मर्दन लांशको पाचारस विहान् oleum (वा Liquid por. | और अवगाहनके लिए तिलका तैल को प्रशस्त है। tion of oil ) वा तेलसार कहते है पोर उसके स्वच्छ वस्तिक्रियामें, पौने में, नस्य, कर्मरन्ध्र-पूरण में, पब एवं विक्षांश को- Margarine (a pearllike sub- पानके संयोग तथा वायुको शान्तिक लिए तेलका stance in some oil ) वा तेलमौलिक। प्राणोज व्यवहार किया जाता। तसमें, चीजोत्पन नेलमें तथा जलपाई जातोय फलों के सर्षपतक ( परसोंका तेल )-यह पग्निदोप्तिकारक सैलादिमें Stearine ( aproximate principle of कट रस, कट विपाक, लघु, कमलाकारक, उष्णस्पर्श, Fint ) वा चरबोका गाढ़ पंशवत् पोर भी एक उपादान उष्णवोय, तोरण, रातपित्त प्रकोपक तथा कफ, मेद, पाया जाता है। वायु, पर्श, शिरोरोग, कर्ण रोग, खुजलो, कोढ़, मि, तेलका बाबहार बहुत ज्यादतोसे होता है। साबुन खित, काठ भार दुष्टवण खित, कोठ और दुष्टवण-नाशक होता है। काली और और बत्तो बनान, दोया जलाने में, मशीन में, पशम बनाने सफेद सरसोका तेल भी उक्त गुण-सम्पब एवं मूत्रकच्छो- में, रंग और बानिशबमान, माग, तरकारी में, दवारयोः त्यादक होता है। में, छापनको स्वाहो में, फलादि के अचारों में, शहाटिक एरणतैल ( अंडीका तेल )- यह सेल मधुर, उष्ण, संस्कारमें, तथा सुगन्धित तेल और पत्र पादिक बनाममें सोया, पग्निकर, कट, और पोछेसे कषाय, सम, माड़ो- तेलका यथेष्ट वावहार होता है। इसके सिवा पोर भो शोधक, वक के लिए हितकर, वृथ, पाकमें मधुर एवं बहुत छोटे छोटे कामों में सेलका वावहारं होता है। क्यास्थापक ( जिसके व्यवहारसे शोर शोघ्र जोण नहीं मृत्तिज तेल वा मिट्टीका तेल- इसका अंग्रेजी माम होता ), योनि पोर एकाका शोधक, पाराग्य, मेधा, 'केरोसिम' है। यह तेल तुरुष्क के अधीन परब, उत्तर- कान्ति पोर बलको उत्पब करनेवाला तथा बातम्या पारयंक बाकुट नामक स्थानमें, उत्तर भारतमें, चोन और और शरोरकं अधोभागके दोषोंका नाशक है। ब्रह्ममयम उत्पन होता है। इस तेलमे व तरको निम्ब, पतसो, पण, कुसुम्भ, मूलक, देवताड़, तवेधन, चोजे बनती है, जिनमें एकारका तपारखत कठिन (धोषाफल), अके, काम्मिल, हम्तिकण, पृयिका (बड़ी मोम और एक तर कामदा खुगबूदार तो हो बलायचो), पोलु, भारत, बङ्गदो, मिग्र, सम्प, सुवर्चला (तोसो), विड़ा, ज्योतिमतो उनके बोज और फतका तेल - हमारे आयुर्वे दंके मतमे सभी सेल वायुनाशक है। तोक्ष्ण, लघु पर अनुष्णवोग, रम और पाकमें कटु, सारक जिनमें तिल का तेल को सबसे बेहोरसक पर्याय . तथा वातामा, मि, कुष्ठ, प्रमेह भोर 'शिरोरोगका म मेह, अभ्यञ्जन । ( हेम) माशक है। सेसकर य. उष्ण सोहा, मधुर, पुष्टिकर, सप्लिकर, शण वीजकातैल-वातन्त्र, मधुर, बलकारक, कट, ग्राम्यधर्म को उत्तेजक, सूक्ष्म विशद, गुरु. सारक चक्षुके लिए अहितकर, निवाष्ण, गुरुपाक और पित्त. "विकाशो, तेजस्वर, वकके लिए प्रसनतासम्पादक, मेधा, कर होता है। गैरकी कोमलता पौर मासको दृढ़ करनेवाला, वर्ण गुदीका तक मिन, ईषत् तिता, लघु, कुष्ठ एवं कर बनकर, दृष्टि हितकर, मुनरोधक, लेखनकर, सिता. मिनाशक पोर दृष्टि, एक एव बलमयकर होता है। पश्चात् कषाय, पाचका बासोमा और मिनाथम, कुसुमवीजका तक-परिपाकमें कट, समस्त दोषों : योनिशूल, शिरःशूलं पोट कर्णशूलको शान्त करनेवाला का वर्षक. रमपित्तजनक, तोरण, चक्षुके लिए हित- एवं गर्भाशयका शोषक होता है। शिव, भिव, उत्विष्ट, कर पौर विद्रोही (जिससे गला जलने लगे) होता है। Vol. Ix. 187 .