पृष्ठ:हिन्दी विश्वकोष नवम भाग.djvu/७५८

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७४६ - किराततिमा (चिरायता ), तिनिय, विमोतक, नारि गुण उपादान कारपके सहप समझ लेना चाहिये । परोर केन, कोन, पोलु. जवन्तो पियान, कवंदा, सूर्य कालो पर तेल लगामेने भरोर मुलायम रहता, कफ पोर वपुष, एरिक, ककमिक, कुष्माण्ड भादिका तेल मधुर वायु मष्ट होते हैं, धातु पुष्टि कर होतो है, तेज और वायु पोर पित्तको गान्त करनावाला, शीतवोग नक्षुकं वणं प्रमय रहता है, पंगे के तलवे पर तेल मसनेमे लिए अहितकर, मनमुत्रजनक और अग्निमाम्य र खब नोंद पातो है, पांखों की सरावट पहुंचनी है होता है । मधुक, गमारों और पलाशका तन्न मधुर, और पादरोग नष्ट होता है। परन्त कफरोगों के लिए कषाय और कफ पित्तको शान्त करनेवाला है। यह अनिष्टकर। शरोरसे तेल मल कर खान करनेसे तुवक और भलातकका तल-उल मधुर, बस बढ़ता। लोम-कूप एवं थिराणों के मुख में तेल कषाय, पोछेसे तिल, कटु, ए। , मेद, मेड, पोर प्रविष्ट होनेसे नाड़ो तुम रहती है। तेल-बारा मस्तकको कमिका नाशक तथा अध्वं और आधाभागके दोषों को भोगा रखनसे गिरःशूल, मांस-लोलित और गजरोग दूर करनेवाला है। नहीं होता, प्रत्युत कंश धन, मजबूत और काले होते. सरन, देवदार, गण्डोर, मिपा पोर अगुक बनके तथा इन्द्रियां प्रसन्नौर मुख यो युक्त रहता है । कानमें मारभागका तल-तित. कट, कषाय, दूर्षित वर्षों तेल डालनेसे वाण रोग नष्ट हो जाता है। मदन वा योधक तथा मभि, कफ, कुष्ठ एवं वायुका शान्त करम लगान के लिए सरसौका तेल ही सबसे उत्तम है। वाला है। ल-पक्ष खाधके गुण-विदाहो, गुरुपाक, परिपाक- तुम्बो. कोषाम. दम्तो, द्रवन्तो, मामा, सत्रम्ला, नालिय में काट, पण वायु पोर हष्टि के लिए हितकर, पित्त- कम्पिन भोर शहिनाका तेल--तिक, कार, कषाय कर एवं खका दोषोत्पादक है। लपक मांस मुखप्रिय, परोर अधोभाग दोषां का नाशक तथा अमि, कफ, चिकार एवं लघुक होता है। कुष्ठ पार वायु का शान्त करनेवाला एव दृषित वणों का तेल जितना पुराना होता जाता है, उसमें उतनी हो संशोधक। गुणोंकी हि होतो है। (भावप्र०, मुश्रुत, व्यगु०) यतितका तेल-सब दोषों को शान्त करनेवाला, प्रातःसाम ( सूर्योदय से पहले), व्रत, श्राद, हादशी और ग्रहणके दिन तब नहीं लगाना चाहिए । ईषत् तित, अग्निदोलिकर, लेखन, पथ्य, पवित्र पोर "प्रात:स्नाने व्रते श्रावे द्वादश्यां प्रहणे तथा । रसायन हैं। ___मयपसमं तैलं तस्मातल विवयेत् ॥” ( कर्मलोचन ) ऐक षिका (व पुष्य)-का तेल-मधुर, अति घोसल, ____ोकम तेलका निषेध किया गया है। तिल. पित्तपोन्सिकर, वायुप्रकोप पोर अभावक है। नापर, पर्धात् पूर्वास कार्यो में तिलका तेल नहीं पामेवीज का तेल-ईषत् सिला, पति सुगन्धित, लगाना चाहिये। वातमाशान्तिकर, रूप, मधुर, कषाय और इसके घृत, सर्वपका तमा पोरं पुष्पवासित तेल तथा पक्क रसको भांति भतिशय पित्तकर है। तेल भरोर पर न लगाना चाहिए, क्योंकि इन ते लोका जिन फलो तला का उल्लख लिया गया है, वं लगाना ढोषावह है।(तिथितस) फल भी तलको तरह वायुधान्तिकर है। सम तेलों में पार विशेषमें तेल प्रहणका फल-रविवारको तेल तिलका त ल हो उत्कष्ट है। तेलके सदृश काय कागे लगानिस उदयका विनाश होता है, सोमको कीर्तिलाम, पर उसो प्रकार गुणयुत्ता होनेके कारण हो अन्यान्य महालको मृत्यु बुधको पुत्रलाभ, हस्पतिवारको अर्थ तेला में लत्व स्वीकार किया जाता है। भाश, अक्रवारको शोक और शनिवारको तेल लगानसे वागभटका कहना है, कि जिम चौजसे जो तेल दीर्घायु माल होती है। (ज्योतिस्तस्व). उत्पब होता है, उममें उस चीजके गुर विद्यमान रहते ची मलनेकी अपेक्षा तर मदन करने ८ गुना है। इसलिए सेलो के,गुष नहीं मिलेगये। उनके पस होता।