पद्धविटक-पष
बद्धविट्क (स. त्रि०) बद्धपुरीष, जिसका मल रुक शास्त्रमें वध अर्थात् हिंसामालको ही मिषिद्ध बत.
गया हो।
लाया है। फिर दूसरे शास्त्रमें यज्ञमें पशुबधका उल्लेख
बद्धविन्मूत्र ( स० त्रि०) जिसका पुरीष और मूत्र रुक देखने में आता है। शास्त्र में लिखा है, कि यज्ञमें यदि पशु-
गया हो।
बध किया जाय, तो कोई पाप नहीं होगा। सांख्यदर्शनमें
बद्धवीर ( स० त्रि० ) जिमकी सेना आवद्ध हुई हो।
इस विषयको मीमांसा की गई है, वह इस प्रकार है:-
बद्धशिख (सं त्रि०) बद्धा शिखा चूड़ा यस्येति । १
श्रुतिमें हिंसामात्र ही निषिद्ध है अर्थात् कोई भी
जिसकी शिखा या चोटी बंधी हो । बिना शिखा
हिंसा न करे, ऐसा कहा गया है। फिर अन्य श्रुतिका
बांधे जो कुछ धर्म कर्म किया जाता है वह निष्फल मत है, कि यज्ञमें पशुबध करे। इस प्रकार पहले तो दोनों
होता है।
ध्रुतियोंमें विरोध देखा जाता है, पर थोड़ा गौर कर यदि
"सदोपवीतिना भाव्य सदा बद्धशिखेन तु।
देखा जाय तो कुछ भी विरोध मालूम नहीं पड़ता। क्योंकि
विशिखो व्युपवीतश्च यत्करोति न तत्कृतम् ॥”
हिंसा वा पशुबध अनिष्टसम्पादक और यज्ञीय पशुबध
(प्रायश्चि .)
यज्ञका उपकारक है। यज्ञमें जिस प्रकार दश कार्य
(पु.) शिशु, बच्चा।
करने होते हैं, पशुबध भी उसी प्रकार उनमेंसे एक है।
बद्धशिखा ( स० स्त्री० ) बद्धा शिखा यस्याः।१ उच्चा,
भूम्यामलकी। बद्धा शिखा केशकलापो यस्याः। २
यथाविहित यज्ञके समाप्त होने पर जिस प्रकार यह
सम्बन्धकेशा, वह स्त्री जिसके केश बंधे हों। ३
लिये स्वर्ग होता है, उसी प्रकार पशुबधके लिये नरक भी
लशुन।
होता है । अतएव यज्ञमें इष्ट और अमिष्ट दोनों ही अवश्य-
बद्धसूतक ( स० पु० ) रमेश्वर दर्शनके अनुसार बद्ध रस
म्भावी हैं। बहुत सुखभोग करनेके बाद यदि
या पारा जो अक्षत, लघुद्रावी, तेजोविशिष्ट, निर्मल और दुःख भोगना पड़े तो उसकी गिनती दुःखमें नहीं होती,
गुरु कहा गया है। रसेश्वर दर्शनमें देहको स्थिर या इसीलिये वे लोग बधजन्य दुखको दुःख नहीं मानते और
अमर करने पर मुक्ति कही गई हैं। यह स्थिरता रस या इससे नरक होता है सो भी नहीं। अतएव दोनों श्रतियां
पारेकी सिद्धि द्वारा प्राप्त होती है।
एक दूसरेके विरुद्ध नहीं हैं . किन्तु तिथितत्त्वमें बंध-
बद्धामयपति ( स० पु० । ऋषभक औषध।
हिंसाविचारको जगह मांग्यका यह मत खण्डित हुआ
बद्धी ( हिं० स्त्री० ) १ डोरी, रस्सी, तस्मा। २ माला या
है। धर्म शास्त्रका अभिप्राय यह है, कि वैधातिरिक्त
सिकड़ीके आकारका चार लड़ोंका एक गहना । उन चार बध हो पापका कारण है, वैधबध अर्थात् यशार्थ पशु-
लडोंमेंसे दो लर्ड तो गलेमें होती हैं और दो दोनों कंधों हिंसामें पाप नहीं होगा, वरन् यज्ञकी सम्पूर्णताके लिये
परसे जनेऊकी तरह होती हुई छाती और पीठ तक गई।
रहती हैं।
"यज्ञार्थं पशवः सृष्टाः स्वयमेव स्यम्भुवा ।
बद्धोदर ( स० पु० ) बद्धगुद रोग। बद्धगुद देखो । अतस्त्वां घायिष्यामि तस्माजने बधोऽवधः ॥".
बध ( स० पु०) हन् घन, बधादेशः । प्राणवियोगसाधन-
व्यापार, हत्या, हमन, मार डालना । जिससे प्राण यज्ञके लिये स्वयं स्वयम्भूने पशुओंकी सृष्टि की है।
विनष्ट हो, वही वध पदवाच्य है। जो बधकार्यका : अतएव यज्ञमें यह पशुवध अबध स्वरूप है अर्थात् बध.
अनुष्ठान करते हैं वे नरकगामी होते हैं। इसीसे शास्त्रमें जन्य कोई पाप नहीं होगा।
बधको अत्यन्त निन्दित बतलाया गया है। केवल वध- तत्त्वकौमुदी और तिथितत्त्रको विचारप्रणालीकी
कारी हो नरकगामी होता है सो नहों, प्रयोजक, अनु-: यदि विशदरूपसे पर्यालोचना की जाय, तो तिथितत्त्वको
मन्ता, अनुग्राहक और निमित्ती ये चार भी बधकारीके यह उक्ति समीचीन प्रतीत नहीं होती। इसका बिशेष
साथ निरयगामी होते हैं।
विवरण
हिममें देखो।
कहते हैं..
(तिथितस्त्र)
पृष्ठ:हिन्दी विश्वकोष पंचदश भाग.djvu/१७८
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