पृष्ठ:हिन्दी विश्वकोष पंचदश भाग.djvu/१८६

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१८० बनेलीराज ई०में हुआ था। सस्कृत-उर्दू ओर अरबीके घे अच्छे कि वे तहसीलदार नहीं, ष्टेटके मनेजर थे। कुल दार- कवि थे, केवल यही नहीं, मल्लक्रीड़ामें भी उन्होंने अच्छा मदार इन्हींके हाथ था। इसी समय पूर्णियाके फौजदार- नाम कमाया था। कुछ समय बाद अजीमाबाद-सर नवाव आखेटमें अमौर आये। वे दिन भर जंगलमें कारने उन्हें दरभङ्गाके फकराबाद परगनेका चौधरी-पद | घूमते रहे, पर एक भी बाघ मारनेका उन्हें साहस न प्रदान किया। हुआ। परमानन्द चौधरीने एक बाघ मार कर उनके सामने इस समयसे परमानन्द झा परमानन्द चौधरी कह हाजिर किया। नवाब इनकी वीरता पर इतने प्रसन्न लाने लगे। आस पासके स्थानों में उनकी तूती बोलने हुए, कि उन्हें हजारी ( १००० सेनाका मनसबदार)-की लगी। किसी कारणवश अजीमावाद सरकार उन पर | उपाधि प्रदान की। इस समयसे परमानन्द हजारी बड़ी बिगड़ी और उन्होंने जजीरमें पकड़ लानेके लिये | परमानन्द चोधरी नामसे प्रसिद्ध हुए। सशस्त्र योद्धा भेजे । इस समय चौधरी जी पुष्कर-यन कर इधर उनके पुत्र दुलारसिंहने कृषि तथा बाणिज्य व्यव- रहे थे। विश्वस्त सूत्रसे इसकी खबर लगते ही उन्होंने साय द्वारा प्रचुर सम्पत्ति उपार्जन कर ली। भाग्य लक्ष्मी यक्षानुष्ठान बंद कर दिया और पैतृक सम्पत्ति बैंगनीका उनके अनुकूल हुई । क्रमशः वे पूर्णियाके सरकारी चार आना हिस्सा बेच कर कुछ रुपये हाथ कर लिये कानूनगो हुए । नेपाल-युद्ध में दुलारसिंहकी वीरता, राज- और यहांसे सपरिवार निकटवत्ती जगलमें चम्पत हुए। भक्ति और सेवासे संतुष्ट हो उनके कृत कार्यके पुरष्कार जन्मभूमि बैंगनी छोड़नेके पहले वे एक जलाशयके स्वरूप वृटिश सरकारने उन्हें 'राजा बहादुर'को उपाधिसे किनारे एक खिरनी-दृक्ष रोप गये थे। वह वृक्ष आज भूषित किया था। यथासमय उनके प्रथम स्त्रीसे सरवा- भी वहां देखने में आता है। कहते हैं, कि परमानन्द ! नन्दसिंह और वेदानन्दसिंह तथा द्वितीय स्त्रीसे रुदानन्द- चौधरी जब शत्रुसे प्राण रक्षाके लिये इधर उधर भाग रहे । सिंहने जन्मग्रहण किया। आगे चल कर रुदानन्द थे, उसी समय उनके दो पुत्र उत्पन्न हुए, एकलाल सिंह , श्रीनगरके प्रतिष्टापक हुए। बड़े सरवानन्द सिंह बिना चौधरी और दुलार सिंह चौधरी। इसी समय उनके कोई सन्तान छोड़े अकाल ही कराल कालके गालमें छोटे भाई माणिक चौधरी भी हीरालाल सिंह नामक एक फंसे । दुलार सिंहके स्वर्गवासी होने पर बेदानन्द सिंह पुत्र रत्न छोड़ परलोक सिधारे। परमानन्द बहुत दिनों बहादुर राजसिंहासन पर अधिरूढ़ हुए। इनका जन्म तक एक स्थानसे दूसरे में भागते रहे थे। शत्र ने भी १७७६ ई०में हुआ था। नेपाल-युद्ध में इन्होंने भी वृटिश उनका पीछा नहीं छोड़ा था। आखिर उन्होंने पूर्णिया सरकारको खासी मदद पहुंचाई थी। इस प्रत्युपकारके जिलेके अमौर ग्राम वासी एक धनी कायस्थ भैरव पुरस्कार स्वरूप वे 'राजाबहादुर'की उपाधिसे भूषित हुए। मालिकके यहां आश्रयग्रहण किया। वे पूर्णियाके कानू। कालचक्रसे फूट-देवीने राजप्रासादमें प्रवेश किया और नगो थे। दयापरवश हो उन्होंने परमानन्दजीको बहुत राजा बहादुर अपने वैमात्र भाई रुद्रानन्दसिंहसे पृथक हो सी जमीन प्रदान की। इस समय दुलारसिंह भी गये । बेदानन्दसिंहके हिस्से में जो भाग पड़ा वह बनेलीराज जवानीमें कदम बढ़ा चुके थे, वे ही खेती-वारी किया करते कहलाया और रुदानन्दसिह सौर नदी पार कर गये और थे। संयोगवशतः एक दिन पैसराके जमींदार राजा उसके पश्चिमी किनारे अपने पुत्र कुमार श्रीनन्दन इन्द्रनारायण गय कुछ सिपाहियों के साथ अमौर हो कर सिहके नाम पर एक राज-प्रासाद बनवाया जो श्रीनगर- कहाँ जा रहे थे। परमानन्द चौधरीने कुछ ही समय टंट नामसे वजने लगा। पहले एक बड़ो रोह मछली पकड़ी थी, सो उन्होंने झट राजा वेदानन्दसिंह वहादुरने खड़गपुरके मुसल. मछली ले राजाको भेंट दी । राजा बड़े प्रसन्न हुए और ; मान राजाओंकी विस्तीर्ण भूसम्पत्ति हस्तगत कर ली। उन्हें तीस रुपये मासिक वेयन पर अपने ण्टेटके तह- अलावा इसके उन्होंने गोगरी और मधुवनी परगना भी सीलदार-पद पर नियुक्त किया। कोई कोई कहते हैं, खरीदा। ये भी पिताके जैसे मल्लयुद्ध-प्रिय और योग्य