पृष्ठ:हिन्दी विश्वकोष पंचदश भाग.djvu/२२२

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२०६ बलदेवविद्याभूषण-बलनख हो गये। इस समय जयपुरराज्यमें गोलमाल चल रहा दिन भाष्य रचना करनेका इन्हें देवतासे आदेश मिला। था । जयपुरमें जो गोविन्दजीको मूर्ति है, उनका कहते हैं, कि गलदेवने मन्दिरमेंसे "कुरु कुरु' ऐसा सेवाधिकार गौड़ीय वैष्णवों को मिला था। कुछ शाङ्कर शब्द सुना था । प्रत्यादेश पा कर प्रसन्न चित्तसे ने राजाको समझा कर कहा कि शडरके। इन्होंने भाष्यरचनामें हाथ लगा दिया और शीघ्र ही शारीरिकभाष्यके अतिरिक्त रामानुज, मध्वाचार्य, विष्णु सफलता भी प्राप्त कर लो । गोविन्ददेवके आशिसे स्वामी और निम्बादित्य इन चारों सम्प्रदायमें वेदान्त रचित होनेके कारण इस भाष्यका "श्रीगोविन्दभाष्य" दर्शनके चार भाष्य हैं। किन्तु चैतन्यदेवका मत इन नाम रखा गया। गोविन्ददेवके आदेशकी बातें बल- भायोंके अन्तर्गत नहीं है और न उस मतका पृथक् । देवने भाष्यके शेषमें इस प्रकार लिखी हैं-"विद्यारूपं भाष्य ही है। अतएन ये लोग असम्प्रदायी हैं । असम्प्र भूषणं मे प्रदाय ख्याति निन्ये तेन यो मामुदारः श्रीगोविन्दः दायी वैष्णव गोविन्दके सेवाधिकारी नहीं हो सकते। स्वप्ननिर्दिष्टभाष्यो राधाबन्धुन्धुराङ्गः स जीयात् ॥” राजाने इसकी जांच करनेके लिये एक साधु- (गो. भा०) सभा बुलाई। बहुतसे पछाहीं, उदासीन पण्डित जमा यथासमय वह भाष्य प्रकाश्य सभामें दिखलाया गया। हुए। वृन्दावनके गौड़ीय वैष्णव लोग भी गये । सभी अवाक हो रहे । जयपुर और वृन्दावनमें गौड़ीय विचार आरम्भ हुआ । बंगालियोंकी तरफसे | वैष्णवों का आधिपत्य सदाके लिये जम गया। शारीरिक बलदेव ने कहा, "कौन कहता है, कि हम लोगोंके भाष्य भाष्यकी तरह इस भाष्यमें सभी जगह श्रुतिप्रमाणकी नहीं है ? श्रीमद्भागवत हो वेदान्तके भाष्य प्रधानता देखी जाती है। अन्यान्य भाष्यों की तरह खरूप हैं । 'गायत्री भाष्यरूपोऽसौभारताय विनिर्णयः' पुराणके प्रमाणका भी अभाव नहीं है। इत्यादि वाक्य उसके प्रमाण हैं; महाप्रभुने भी यही कहा | बलदेव निम्नलिखित दार्शनिक प्रन्थ ना गये हैं- है। महाप्रभुने सार्वभौमको जिस वैयासिक भाष्य द्वारा १ गोविन्दभाष्य, २ सूक्ष्मभाष्य (गोविन्दभाज्यको परास्त किया, वही यथार्थमें चैतन्यसम्मत भाष्य है। टीका), ३ सिद्धान्तरत्न वा भाष्यपीठक, ४ प्रमेयरलावली पट्सन्दर्भादिमें भी यही निवद्ध हुआ है।" इतना कह कर और कान्तिमालाटीका, ५ वेदान्तस्यमन्तक, ६ गीताभूषण वे शाङ्करिक पण्डितोंके साथ विवादमें प्रवृत्त हो गये और भाष्य, ७ दशोपनिषद्भाष्य, ८ सहस्रनामभाष्य, ६ स्तव- आखिर उन्हें परास्त कर हो डाला। उन्हें निरस्त मालाभाष्य, १० सारङ्ग रङ्गदा। ( लघुभागवतामृतको करनेके अभिप्रायसे जब शङ्कर पण्डितों ने पूछा, कि यह | टीका)। किस सम्प्रदायके अनुगत है, तब उन्होंने कहा, "यह इनका वन्दावनमें ही शरीरान्त हुआ। वहां आज श्रीचैतन्यभाष्यानुगत है।" यथार्थमें षट्सन्दर्भादि भिन्न भी उनकी समाधि विद्यमान है। महाप्रभुकृत पृथक् भाष्य नहीं था, यह उन्होंने पहले बलदेवपत्तन ( स० क्लो० ) वृहत्संहितोक्त समुदतीरवत्ती हो कह दिया है। नगर। __ पछाही पण्डितोंने जब उस भाष्यको देखना चाहा, बलदेवसिंह---भरतपुरके जाटवंशीय एक महाराज । ये तब वे बोले, "अवश्य दिखलाऊंगा, लेकिन आज नहीं, राजा रणजित्के पुत्र और राजा रणधीरके कनिष्ठ थे। कल ।” इतना कह कर सभा दूसरे दिनके लिये उठ गई। १८२४ ई०में इन्होंने अपने पुत्र बलवन्तको युवराज ___ भाष्य तो था नहीं, वे देखावेंगे क्या ! सो उन्होंने बनानेके लिये अङ्गारेजोंसे सहायता ली थी। १८२५ ई०में एक नया भाष्य बनानेका संकल्प किया। इस भीषण- उनको मृत्यु हुई। मथुराके निकटवती गोवर्द्धन नामक सागरको पार करनेके लिये उन्हों ने श्रीगोविन्दजीको स्थानमें इनके दोनों भाइयोंके समाधिस्तम्भ प्रतिष्ठित हैं। शरण ली। अनाहार मन्दिरके द्वार पर खड़े रहे। बलदेवा ( स०पु०) वायमाण ओषधि । इस प्रकार एक दिन, दो दिन, तीन दिन बीत गये। चौथे बलनख (स.पु.) व्याननसा, वाधका नाखून ।