पृष्ठ:हिन्दी विश्वकोष पंचदश भाग.djvu/३३९

विकिस्रोत से
यह पृष्ठ अभी शोधित नहीं है।

में स्वच्छ निद्रा न आना, पतला दस्त आना, देहमें | माल्य, रक्तपताका, गंध, विविध प्रकार भक्षा, घण्टावाय, काकके तुल्य गंध आना, वमन, लोमहर्षण तथा तृष्णा | नूतनशाली, यव, कुक्कुट आदिकी बलि देनी चाहिये। मादि लक्षण होते हैं। मंत्र-"तपसां तेजसाञ्चैव यशसां वयसा तथा। . : अंधपूतनाग्रहाभिभूत होने पर स्तनों में दुष, अतो निधानं योऽव्ययोदेवः स ते मदः प्रसीवतु ॥ सार, कास, हिका, वमन, ज्वर, सतत विवर्ण और प्रहसेनापतिर्देवो देवसेनापतिर्षिभुः । शोणित गंध आदि लक्षण होते हैं। देवसेनारिपुहरः पातु त्वां भगवान् गुहः । शीतपूतनाग्रहसे पीड़ित होने पर उद्विग्न, अतिशय | देवदेवस्य महतः पावकस्य च यः सुतः। . कम्प, रोदन, अवसभावसे निदा, अबकूजन, अङ्ग गङ्गोमाकृत्तिकानाञ्च स ते शर्म प्रयच्छतु । शैथिल्य-आदि लक्षण होते हैं । मुखगण्डिकाप्रहसे रक्तमाल्याम्बरधरो रक्तचंदनभूषितः । पीड़ितके अंग म्लान, हस्तपाद और वदन रक्तवर्ण, | रक्तदिव्यवपुर्देवः पातु त्वां क्रौंचसूदनः ॥ बहुभोजी, उदरशिराओंसे आवृत्त, उछग और मूत्रको ___स्कंदापल्मारकी चिकित्सा-विल्य, शिरीष, गोलोमी सी गंध आदि लक्षण होते हैं। नैगमयग्रहसे पीड़ित होने और सुरसादिके क्वाथका परिषेचन, सर्पगंधाको साथ पर फेनेका वमन, देहका मध्य भाग बिनमित, उद्वेग तिलतैलमहन, क्षीरवृक्ष और काकल्यादि गणका क्वाथ विलाप, ऊद्ध दृष्टि, ज्वर, शरीरमें ची की-सी गध मिलाकर घृत वा दुग्धका पान कराना तथा षच और हिंगुका आना आदि लक्षण होते हैं। आलेपन करना चाहिये। गृध्र और उल्लूका पुरोष, केश, बालक स्तब्ध-भावापन्न, स्तनद्वषी और बारबार | हाथोके नग्न, गायका घी और बालीका धूपमें प्रयोग करना मुह्यमान होने तथा रोगके सम्पूर्ण लक्षण प्रकट चाहिये। अनंता, विम्बी, मर्कटी तथा कुक्कुटी आदि होने पर रोगी शीघ्र ही प्राण त्याग करता है। शरीरमें धारण करना चाहिये । चतुष्पथमें स्कंदापस्मार ऐसा न होने पर रोग साध्य है । रोगकी परवाह प्रहको पूजा कर पक्के या कच्चे मांस, प्रसन्न रुधिर, न करनेसे रोग आराम नहीं होता इसलिये उसकी दुग्ध और भूताग्नको बलि देनी चाहिये। मंत्र- प्रथमावस्थासे ही चिकित्सा कगनी चाहिये। शिशुको "स्कंदापस्मारसंझो यः स्कंदस्य दयितः सखा। पवित्र गृहमें रख पुराने घीका महन करना तथा घरमें षिशास्त्रसंक्षश्च शिशोः शिवोऽस्तु विकृतामनः॥" सरसों फैलाना चाहिये। रोगीके पास सर्वगंधा औषधि शकुनिप्रहकी चिकित्सा--शकुनि प्रहजन्य रोगमें बेत, के बोज और गंधमाल्योसे अग्निमें घृतका हवन करना | आम, कपित्थ आदिका क्वाथ परिषेचन, कषाय और मधुर चाहिये। द्रष्यस्थको मिला कर गर्म तैलका मईन, यष्टिमधु, खस- . इन सम्पूर्ण ग्रहोंकी चिकित्सा यों लिखो है-स्कंद खसकी जड़, वाला, श्यामालता, उत्पल, पद्मकाष्ठ, लोध, प्रहसे पीड़ित बच्चेको वातघ्न वृक्षका काथ, या ऐसे वृक्ष- प्रियंगु, मजीठ और शैलज माविका प्रदेह प्रयोग करना की जड़का काथके साथ पाक और सर्वगंधा, सुरामुण्ड चाहिये। व्रणरोगमें कहा हुमा चूर्ण और धूप, विविध और कैटर्म आदि द्रव्योंको डाल मई न करना प्रशस्त प्रकारका पथ्य, आदि प्रयोज्य है। शतमूली, मृगादनी, है। देवदारु, रास्मा, मधुरवृक्ष इनका काथ और एर्वारु नागवन्ती, निदिग्धका, लक्ष्मणा, सहदेवा, वृहती धके साथ घृत पाक करके पिलाना चाहिये। आदि शरीरमें धारण करना चाहिये। यथोक्त प्रकारसे सरसों, सांपकी केंचुल और ऊंट, बकरी, गो आदिके इसकी पूजा अवश्य कर्तव्य है। रोमोका धुषा देना चाहिये। सोमलता, इन्द्रवल्ली, रेवतोप्रहकी चिकित्सा-अश्वग'धा, मजश्वङ्गी, शमी, विल्वकटक और मृगावनी भादिको प्रथित शारिवा, पुनर्नवा, मूगानि, माषानि, भूमिकुष्माण्ड, मादि कर अङ्गमें धारण करना चाहिये। निशाकालमें स्नान क्वाथका परिषेचन, धव, अश्वकर्ण, अर्जुन, धातकी, कर चत्वर पर एकंदप्रहकी पूजा करनी चाहिये । रक्त तिन्दुक, कुष्ठवा सर्जरसके साथ पाक कर तैलका मदन, Vol. xv, 84