पृष्ठ:हिन्दी विश्वकोष पंचदश भाग.djvu/३४४

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पालरोग कुपित हो दूधको दूषित करता है। उसी दूषित दुग्ध-। गुह्य प्रदेशमै पाक हो तो उसको गुदपाक कहते हैं। पानसे बालक अनेक रोगोंसे आक्रान्त हो जाता है। मल, मूत्र वा धर्मयुक्त बालकोंका गुह्य द्वार न धोने बात दृषित स्तन्यपानसे बच्चोंको वातरोग, स्वर- पर उसमें कुपित कफ और रक्तसे बाज उत्पन्न होती भंग, शरीर कृश तथा मल मूत्र और अधोवायु नहीं है। बच्चे के शिरगे बड़े बडे फोड़े हो पीप निकलने निकलते। पित्त दूषित स्तन्य पान करनेसे बच्चेको धर्मा- लगती है। ये थोडे. दिन बाद आपसमें मिल जाते हैं धिक्य, मलभेद, पिपासा और शरीरमें सूजन होती है जिससे भयंकर रोग बालकोंको होता है। यही अहि- एवं कमला आदि पित्तजरोग हो जाते हैं । कफ पूतना कहा जाता है। कुपित कफ वायु द्वारा बच्चों के दूषित स्तन्य पान करनेसे लालास्राव, निद्राधिक्य, जड़ता, शरीरमें मुद्राकृति, स्निग्ध, स्वाभाविक वर्णविशिष्ट, प्रथित शोथ और आंखें रक्तवर्णकी हो जाती हैं। नाना प्रकार एवं वेदनाविहीन पोडका उत्पन्न होती है। यह के कफजरोग उसको अपना शिकार बना लेते हैं। दो पीड़का अजगली नामसे पुकारी जाती है। जो बालक दोषोंसे दूषित म्तन्य पानसे द्विदोषज लक्षण, तथा गर्भिणी माताका स्तन्यपान करता है उसको प्रायः कास, त्रिदोषज दूषित स्तन्यपानसे तीम तरहके लक्षण होते हैं। अग्निमांद्य, वमि, तन्त्रा, कृशता, अरुचि और भ्रम या वयःप्राप्त व्यक्तियों को ज्वरादिमें जो लक्षण होते | उसके उदरकी वृद्धि होती है। इसे पारिगर्भिक वा परि- हैं बालकोंको भी वही रोग होता है। भवाख्यरोग कहा जाता है। इस रोगमें अग्निप्रदीपक जो सब रोग केवल बालकों को ही उत्पन्न होते हैं, औषधका प्रयोग करना होता है। बच्चोंके दन्तोद्भव षयाप्राप्त मनुष्योंको नहीं होते उन्हींको बालरोग कहते | समस्त रोगोंका कारण जानना चाहिये। विशेषतः उन्हें इस प्रकार बालरोगका विवरण संक्षेपसे लिखा ज्वर, मलभेद, कास. पमि. शिरोरोग, अभिष्य द. पोथकी जाता है। एवं विसर्परोग उत्पन्न होते हैं। बच्चोंके तालुमांसमें कफ दूषित हो कर तालु कण्ठक ज्वरादि रोगोंमें वयःप्राप्त व्यक्तियोंके लिये जो सब मामक रोग उत्पन्न करता है। यह रोग तालमें औषधियां कही गई हैं बच्चोंको भी उन रोगोंमें वे ही औष- मस्तकसे कुछ नीचे होता है। तालुपतनके कारण धियां देनी चाहिये। किन्तु दाहादि रोगोंमें वैसी औष- बच्चा स्तन्यपानसे विशेषी हो बड़ी मुश्किलसे पीता है। धियां न देनी चाहिये। दाहादि शब्दसे यहाँ अग्निकर्म, उसके मलभेद, पिपासा, पमि और तालु, कण्ठ तथा वमन, विरेचन और शिरावेध आदि तीक्ष्ण कर्म समझना मुखमें घेदना होती है। चाहिये। किन्तु अति कष्टकर रोगोंमें अगत्या वमनादि- त्रिदोषके प्रकोपके कारण बालकों के मस्तक वा का प्रयोग भी करना होगा। यहां सुश्रुतका इतना ही वस्तिमें लोहित वर्ण अथच प्राणनाशक विसर्वरोग | अभिप्राय है, कि विना कष्टकर रोगोंके वमन और विरेचन- उत्पन्न होता है। शिर पर होनेसे हृदय तक फैल जाता का व्यवहार नहीं करना चाहिये। है। यदि वस्तिमें उत्पन्न हो, तो गुह्यसे मस्तक तक बालकोंको औषधिकी माला बहुत थोड़ो देनी चाहिये। फैलता है। इसके ऐसे होनेको महापन कहते हैं। जिन रोगों में जो जो औषधियां कथित हैं उन्हों औषधियों- दूषित स्तन्यपानके कारण बालकों की आँखोंके को धात्री स्तनके ऊपर लगा कर उसे उसो स्तनका पान पलकोंमें कोथ नामका रोग पैदा होता है। इस रोगमें कराना ठीक है। जिन पालकों को बोलना नहीं भावे मिलों में वेदना और स्नावयुक्त खोज होती है। रोगीक उनका आभ्यंतरिक रोग ऐसे लक्षणों से मालूम पड़ जाता मस्तक और नासिकामें खुजली मचती है। सूर्यके प्रकाश- है। बालकके समस्त मङ्गों पर हाथ फेरे, जिस अङ्गमें में आखोंको खोल नहीं सकता है। पीड़ा होगी उस अङ्गमें वह हाथ नहीं लगाने देगा। कुपित वायुसे नाभिदेशमें यदि यह रोग वेदनाके मस्तक पर रोग होमेसे बच्चे मांखें मीच लेते और साहित हो तो उसको तुण्डी और यदि कुपित पितसे मस्तकको कटकर मालूम करते हैं। पस्तिमें रोग होने