पृष्ठ:हिन्दी विश्वकोष पंचदश भाग.djvu/३५२

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३१६ तुम्हारे पिता रहे, उनका और हमारा आपसमें परम स्नेह और आप उसका आज्ञाकारी सेवक बन यहाँका शासन रहा। अब तुम जो हमसे विमुख हुये हो सो ठोक नहीं करने लगा। रावणने विद्याधर लोककी अनेक सुन्दर है। क्योंकि, रावणके प्रतापके सामने कोई भी ठहर नहीं सुन्दर बालिकाओंके साथ विवाह किया था। नित्यालोक सकता। इस लिये तुम शीघ्र ही जा अपनी भगिनी नगरमें राजा नित्यावलोककी रानी श्रीदेवीसे उत्पन सुप्रभाका रावणके साथ विवाह कर दो और उनके | रत्नावली नामकी पुत्री थी। उसे विवाह कर रावण लङ्का चरणों में अपना मस्तक झुकावो।' दूतके गर्नयुक्त ये वचन को आते थे। जब वे कैलाश पर्वत आये तो उनका पुष्पक सुन उन्होंने कहा, कि जिस रावणकी प्रशंसाका तुम विमान इस प्रकार अटक गया जिस प्रकार वायुमंडल सुमेरु इतना बड़ा पुल बांध रहे हो उसे मैं अपने बायें हाथको पर्वत पर जा अटक जाता है। तब घण्टादिक शब्दसे वह हथेलीसे चूर सकता हूँ। मैं तुम्हारी सब शर्ते कबूल विमान रहित हो गया, मानो वह विमान रूठ कर चुप हो कर सकता हूं : किन्तु उसके चरणों में अपना मस्तक नहीं गया हो । रावणने विमानको अटका देख मरीचि मनोसे नमा सकता। उसका कारण पूछा। मरीचिने कहा, "देव ! यह कैलाश बालि इस प्रकार सोच ही रहे थे कि भावी समरकी पर्वत है। यहां पर कोई मुनि कायोत्सर्गसे शिला पर रत्न आशङ्कासे उनका दिल संभारसे उचट गया। वे विचारने के स्तंभके समान सूर्य के सम्मुख आतापन योगको धारण लगे, कि मैं अपने वास्ते कितने प्राणियों को विध्वस्त कर बैठे होंगे। घे मुनि महा घोर तपको तप रहे होंगे या करनेके लिये तैयार हो रहा हूं। एक उपाय मेरी समझमें | शीघ्र ही मुक्तिको जानेवाले होंगे । आप नीचे उतर उन आ रहा है कि मैं दिगम्बरो दीक्षा ले लू और इस पवित्र मुनिके दर्शन कर अपना जन्म कृतार्थ कोजिये।" राज्यको सुग्रीवको दे। इस उपायसे न तो जीवहिंसा मंत्री मरीचिके ये बचन सुन रावण विमानसे उतरा और ही होगी न मेरा अभिमान हो भंग होगा। ऐसा विचार कर कैलाश पर्वतकी तरफ गयुक्त हो देखने लगा। इतने ही उन्होंने अपनो दिक्षाका वृत्तान्त समस्त लोगोंमें प्रगट किया में उसने दिग्गजोंकी सूड़के समान दोनों भुजाओंको और सुग्रीवको राज्य दे आप तपोषमको चल दिये । वहां बढ़ाया । जिनके शरीरसे सपं लटक रहे थे, पाषाणस्तंभ- शिला पर बैठे हुए नग्न दिगम्बर मुनिके पास जा अव- के समान जो भातपति शिला पर निश्चल खडे थे वैसे नत मस्तक हो उनकी स्तुति की और उनसे दीक्षा ले आप बालिमुनिको उसने देखा। रावणने जब बालिमुनिको द्वादश तपको तपने लगे । यद्यपि वे राज्यकी समस्त विभू- देखा तब पापी पहिले बैरका स्मरण कर भृकुटि चढ़ा तियोंका त्याग कर चुके थे तो भी धे राजा ही प्रतीत होते असता हुआ कठोर शब्द वालिमुनिके प्रति कहने लगा,- थे। कारण, इनसे समस्त प्राणियोंकी रक्षा होती थी।वे | "अहो! कैसा तेरा तप है? जो अभिमाम अभी तक नहीं मुनि सदा ध्यानमें तत्पर पूर्णरूपसे अहिंसाके प्रतिपालक छोड़ता। मेरा विमान चलतेसे क्यों रोका ? क्या तू बीत- थे। उन्होंने समस्त संसारकी माया ममताको छोड़ दिया राग धर्मको धारण करता है या अमृत और विषको एक था। चाहे उनकी स्तुति करो या निंदा, वे सदा मध्यस्थ करमा चाहता है ? पापी ! तू कहां और तेरा वीतराग धर्म भाव रखते थे। शत्र मित्र पर उनका सदा एक-सा भाव कहां! ठहर, अभी तेरे गर्वको चकना चूर किये देता हूं। था। संसारमें यदि उनके कोई शत था तो केवल अष्ट- मैं तुझे सहित इस कैलाश पर्वतको समुदमें डाल दूंगा।" कर्म और मिल था तो एक धर्म ही। इस प्रकार उस निर्दयीने विकराल रूप बनाया। जितनी एक दिन कैलाश पर्वत पर बालि मुनि कायोत्सर्गसे विद्यायें उसने अभी तक साधी थीं वे चिन्तवन करनेसे खड़े खड़े ध्यानमे तल्लीन हो व अपनी आत्माका चिन्त- हो उसके समीप आयीं। तब रावण विधाके बलसे घन कर रहे थे। पातालमें बैठा। उसका नेल प्रचण्ड क्रोधसे लाल और जव सुप्रीबने किष्किन्धाका राज्य पाया तो उसने अपनी इंकार शब्दसे मुशा बाचाल हो गया। अपनी भुजाओंसे सुप्रभा बहिनका रावणके साथ पाणिग्रहण कर दिया फैलाश पर्वत उठानेका बह उद्योग करने लगा। सिंह