पृष्ठ:हिन्दी विश्वकोष पंचदश भाग.djvu/४३५

विकिस्रोत से
यह पृष्ठ अभी शोधित नहीं है।

बुखदेव दान्त संयत तथा ब्रह्मचारी भिक्षुकको देख कर सारथिसे : छन्दक नामक अपने सारथिको रथ सजित करनेका पूछा, 'हे सारथे! यह मनुष्य कौन है ? ये शान्ति- आदेश दिया। इस पर छन्दक बोला, 'हे प्रभो ! अभी शील तथा प्रसान्तचित्त हैं, इनकी आंखें स्थिर हैं और आपके एक पुण्यलक्षण पुत्र उत्पन्न हुआ है। वह चारों गेरुआ वस्त्र पहने हुए हैं। ये न तो उद्धत हैं और न द्वोपका अधिपति होगा। आप विपुल सम्पत्तिके मालिक अवनत। ये भिक्षा पात्र ले कर शान्तभावसे विचरण हैं। कपिलवस्तु गज्य मुमृद्ध तथा रमणीय है। हे करते हुए अन्तकालकी प्रतीक्षा करते हैं। इनका पूरा देव ! मुनिगण दुसरे जन्ममें ऐसी सम्पत्तिका भोग करने- हाल मुझे कहो।' कठोर तपस्या किया करते हैं। आप सम्पत्तिलाभ कर- ____ इस पर सारथि बोला, 'हे देव ! यह मनु'य भिक्ष के भी उसका परित्याग क्यों करने चले हैं ? और भी हैं। इन्होंने कामसुखका परित्याग कर विनीत आनरण आपकी पत्नी अत्यन्त रमणीया, विकशित पद्मकी नरह अवलम्बन किया है। प्रत्रज्या ग्रहण कर ये आत्माकी लोचविशिष्टा, विचित्र हारशोभिता, मणिरत्नभूपिता शान्तिके अन्वेषणमें लगे हैं तथा आसक्तिहीन और · तथा मेनिमुक्त आकाशमें समुदित विद्युतको जैसी विद्वषबिहीन हो कर सामान्य आहार संग्रह करते हैं।' प्रभाशालिनी, मनोहग एवं शयनगता है ऐसो पत्नीकी तब बोधिसत्त्व बोले-तमने जो कुछ कहा. वह अक्षरशः सत्य है। ज्ञानो मनुष्य हमेशा प्रवज्याश्रमको इम पर सिद्धार्थ बोले, हे छन्दक ! मैंने रूप, रस, प्रशंसा करते आए हैं। इसी आश्रमका अवलम्बन कर गन्ध, स्पर्श और शब्द इत्यादि अनेक प्रकारकी काम्य अपनी भलाईके साथ साथ दूसरे जीवोंकी भी भलाई वस्तुका इस लोक तथा दवलोको अनन्त कल्प तक भोग की जा सकती है और तभी मनुष्य सुखसे जीवन किया है किन्तु मुझे किसीमे भी तृप्ति न मिली। मैंने व्यतीत कर सकता है। सुमधुर अमृत अर्थात् मुक्ति-: घर छोड़ देनेकी प्रतिज्ञा की है। धन, कुठार, शर, प्रस्तर, इसी आश्रमका फल है। विधु त्प्रभाको तरह प्रज्वलित लोह, आग्नेय गिरिशिखर अभिनिष्क्रमण । इत्यादि मेरे सिर पर क्यों न गिर जाय, पर तो भी गृहा- अपने पुत्रको इस प्रकार विषय-वैराग्यानुरक्त देख स्थाश्रममै पुनः मेरी अनुक्ति नहीं करा सकते हो। शुद्धोदनने उन्हें गृहस्थाश्रममें रखनेकी अनेक चेष्टा की; सिद्धार्थको दृढ़प्रनिश देख कर छन्दकने रथ सजाया। किंतु सब व्यर्थ । सिद्धार्थने गृहस्थाश्रमका परित्याग दोपहर रातको पुण्यनक्षत्रके योगमें सिद्धाथ घर छोड़ करनेका संकल्प कर लिया। उन्होंने दो पहर रातको कर चल दिये। पिताके शयनागारमें जा कर उनसे कहा, 'हे पिता ! आज वे यथाक्रम शाक्य, कोभ्य, मल्ल और मैनेय प्रभृति देश मैं घर छोड़ चला जाऊंगा।' पार कर गण । छः याजन जानेके बाद सुबह हुई। सिद्धार्थका चित्त उस समय चार प्रकार के प्रणिधान- बादमें उन ने अपने शरीर परके आभरण उतार कर में निमग्न था। यथा-संसारका महाचारक बन्धन तोड छन्दक को घर लौट जानेका आशा दी। छन्दक जहांसे कर मनुष्यको उन्मुक्त करना, संसारके महान्धकार- लौटा था, वहां एक चैत्य संस्थापित हुआ जो आज तक गहनसे निवारण करनेके लिए उनके प्रज्ञाचक्षका उत्पा- भी छन्दकनिवर्तन नामसे प्रसिद्ध है। दन करना, अहंकार ममकाराभिनिबिष्ट मनुष्योंको आर्य- मस्तक मुगहन। मार्गोपदेश प्रदान करना और जो जीब धर्माधर्मके तदन्तर उन्होने अपना मस्तक मुडया लिया । वशीभूत हो कर इस लोकसे परलोक जाते तथा पर जहां पर उनकी चूड़ा फेंकी गई थी, वहां एक चैत्य लोकसे इस लोकमें आते हैं, उन्हें प्रत्यावर्त्तन क्लेशसे संस्थापित हुआ जो आज भी चूड़ाप्रतिग्रहण नामसे बचाना । विख्यात है। बाद उन्होंने कपाय वस्त्र पहने हुए एस. एक दिन नगरसे बाहर जानेके लिये सिद्धार्थने ' व्याधको देखा और उसके वस्त्रसे अपना कौषिक पट्ट- Vol. xv, 108