पृष्ठ:हिन्दी विश्वकोष पंचदश भाग.djvu/४३९

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बुद्धदेव बुद्धत्व लाभ करनेके बाद भी सात दिन तक वे बोधि- भी उसो समय बौद्धधर्म में दीक्षित हुप। सारिपुत्र और वृक्षके नीचे बैठे थे। पांचवें सप्ताहमें उन्होंने मुचिलिन्द मौद्गल्यायन ये दोनों बुद्धदेयके सर्वप्रधान शिष्य थे। नागराज भवनमें और छठे में अजपालके योग्रोधमल- अतएव ये लोग अग्रश्रावक कहलाये। में वास तथा सातवें सप्ताहमें तारायणमूलमें विहार अनन्तर बुदेव कपिलवस्तु नगर बुलाये गए । उनके किया था। उसी समय नपुष और मलिक नामक दो पिता शुद्धोदन उन्हें देख कर बड़े ही विस्मित हुए । उस सहोदर वणिक बहुतसे मनुष्यों के माथ दक्षिणसे उत्तरको ममय बुद्धके पुत्र गहुल और मौतेला भाई नन्द दोनोंने ओर जाते थे। उन्होंने बड़ी श्रद्धा भकिसे बुद्धको आहार बौद्धधर्म ग्रहण किया। कुछ दिन बाद बुद्धके नमेरे प्रदान किया था। भाई अनिरुद्ध और आनन्द नथा माला देवदत्त बुद्धप्रव- रन्तर धर्मचक्र प्रवर्तन करनेके लिये वुद्ध बागणमी तित धममें दोक्षित हुए । बुद्धदेवने आनन्दको महानगरोमें भगदाव नामक स्थानकी ओर चल दिये। प्रधान उपस्थायकका पद दिया। बाद वे वैशाली नगर गस्तेमें आजीवक नामके किमी दार्शनिकसे उनको भेंट हो गए। वहां उन्होंने अपने शिष्यों को संसारकी अनित्यता गई। दोनों में नाना आध्यात्मिक विषयका कथोपकथन पर उपदेश किया। अनन्तर वे गजगृहके समीप एक हुआ। अन्तमें आजीवकने पूछा, 'हे गौतम ! तुम कहीं। स्थानमें पधारे। वहां वे रोगग्रस्त हुए. और जीवक जाओगे?' :म पर बुद्ध बोले,- 'मैं पहले वागणमी और नामके सुप्रसिद्ध चिकित्सकने उन्हें दवा दी। गेगमुन बाद काशिकापुरी जा कर मंमाग्में अप्रतिहत धर्मचक्रका । हो कर बुद्धदेवने अनेक अलौकिक धरना दिखाई। यह प्रवलन करूंगा।' तब आजीवकने ताना मार कर कहा, देख कर कृटदन्त और शौल नामक ब्राह्मणने भी बौद्ध 'हे गौतम ! मैं जाता हूँ। तुम्हाग गन्तव्यपथ अभी बहुन । धर्म ग्रहण किया। कोशलगज प्रमनजित् भी इसी धर्मके अनुयायी हुए। __अनन्तर गया प्रदेशके मुदशन नामक नागराजने बुद्ध- उसी ममय देवदत्तने मगधगज अजातशत्र के माथ मिल कर बुद्धदेवको माग्नेकी चेष्टा की। अंतमें देवदन को न्योता दिया। कुछ दिन बाद वे गङ्गा नदी पार कर विफल मनोरथ हुए और अजातशत्रने बौद्धधर्म नशा वाराणसी पहुंचे। वहां उन्होंने महाकाश्यप, अश्वजिन, मङ्गका आश्रय लिया। देवदन मानुष्ठिन पापका फल महानाम तथा कौगिडल्य प्रभृति पांच शियोंके निकट भोगनेके लिये नरकगामा हुआ। निर्वाण धमकी व्याख्या की । इमी प्रमङ्गमें बुद्धदेवने कहा हा. बुद्धदेव पहले स्त्रियोंको अपने धर्ममें दीक्षित नहीं था, - दुःख, दुःखकी उत्पनि, दुःखका निरोध और दुःश्वः करते थे। अपनो मौमी महाप्रजावतोके विशेष अनुरोध निरोधका उपाय इन्हीं चारोंको आर्यमत्य कहते हैं । जन्म, तथा प्रार्थना करने पर बुद्धदेवने पहले उन्हें ही दीक्षित जग, व्याधि, मरण, अप्रियसंयोग और प्रियवियोग इत्यादि किया। कुछ दिन बाद उनकी पत्नी यशोधग भी बौद्धः सभी दुःख शब्दवाच्य हैं। संक्षेपतः तृष्णा ही दुःग्यो धर्म में प्रविष्ट हुई। धीरे धोरे पांच सौ स्त्रियोंने बौद्ध त्पनिका कारण है और इसकी निवृत्तिमे ही दुःख निवृत्त धर्म ग्रहण किया। और इसी प्रकार बौद्ध भिक्षणी होता है। सम्यग दृष्टि, सम्यग् संकल्प, सम्यक् वाक्. सम्प्रदायका दल गठित हुआ। गजा बिम्बिसारको सम्यक् कर्मान्त, सम्यगाजोव, सम्यक् व्यायाम, सम्यक् पत्नीने उक्त धर्ममें दीक्षित हो कर बहुत मी त्रियोंको स्मृति और सम्यक् समाधि ये आठ आर्याष्टाङ्गिक माग इम ओर आकृष्ट किया । विशाखा नामकी वणिकन्याने कहलाते हैं और इन्हीं आठोंका अवलम्बन करनेसे दुःश्व . बौद्धसम्प्रदायकी यथेष्ट उन्नति की थी। निवृत्त होता है। श्रावस्तीके अनाथपिगिडक नामक एक वणिकने . कुछ दिन बाद ५४ युवराज और एक हजार तीथिकने बुद्ध-धर्मका अवलम्बन कर उन्हें जेतवन विहार प्रदान बुद्धदेवका धर्म ग्रहण किया। ये तीर्थक पहले अग्निकी किया था। बुद्धदेव उसो बिहार में वास कर धर्मोपदेश उपासना करते थे। मगधाधिपति महाराज बिम्बिसार दिया करते थे। Vol. xv, 109