पृष्ठ:हिन्दी विश्वकोष पंचदश भाग.djvu/४४२

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बुखदेव म हो लेंगे, जब तक मनुष्य समाजमें ब्रह्मचय सुप्रचारित सम्यक -प्रहाण है । असामान्य क्षमताप्राप्तिके निमित्त नहीं होगा, तब तक हे मार ! मैं परिनिर्षत न होऊंगा। अभिलाषा, चिन्ता, उत्साह और अन्वेषणको चार ऋद्धि- तुम इसकी चिंता न करो : आजसे तीन महीने बाद मैं पाद कहते हैं। श्रद्धा, समाधि, वीय, स्मृति और परिनिर्वाण लाभ करूंगा।' प्रज्ञा इन पांचोंका नाम इन्द्रिय है और यही पांच फिर ___ इसके बाद उन्होंने आमन्दसे कहा.--हे आनद ! पञ्चबल भी कहलाते हैं। स्मृति, धर्म, परिचय, वीर्य, माक्षके आठ सोपान हैं, १ला, जिनके मनमें रूपका भाव प्रीति, प्रश्रब्धि, समाधि और उपेक्षा इन सातोंको सप्त- विद्यमान है, वे ही वाह्यजगत्में रूप देखते हैं । रा, मनमें ' वोध्यङ्ग कहते हैं । सम्यक दृष्टि, सम्यक संकल्प. सम्यक रूपका भाव तो नहीं, किंत वहिर्जगत में वह दीख पडना। धाक, सम्यक कर्मान्त. सम्यगाजीव. सम्यग व्यायाम, ३रा, मनके भीतर रूपका भाव मौजूद है, किंतु बहिर्जगत्- सम्यक स्मृति और सम्यक समाधि इन आठोंका नाम में मालूम नहीं होना। ४था, रूप जगत्का अतिक्रम कर अष्ट आर्यमार्ग है। 'आकाश अमत है ऐसी भावना करते करते आकाशा- उक्त सैंतीस पदार्थ लेकर मैंने धमकी व्यवस्था की है। नत्यायतनमें विहार करना। ५वां आकाशानं त्याय- तुम लोग भलीभांति आलोचना कर जनसमाजमें इसका तनका अतिक्रम कर 'शान अनत है' इस प्रकार सोचते प्रचार करो। मैं तीन महीने बाद निर्वाण लाभ करूगा, सोचने विज्ञानानं त्यायननमें विहार करना। ठा. अतएव तुम लोग सावधान हो जावो। उन्होंने और भी विज्ञानानत्यायननको पार कर 'कुछ नहीं है' ऐसी कहा था, मेरा जीवन अब शेष होनेको आ चला है, सवों- चिंता करते करते भाकिञ्चन्यायतनमें विहार करना । : को छोड़ कर मैं चला जाऊंगा। हे भिक्ष गण ! अप्रमत्त ७वा, इसका अतिक्रम कर 'ज्ञान भी नहीं है ऐसा सोचते समाहित तथा सुशील बनो और स्थिरसंकल्प हो कर सोचते नैव-संज्ञानासंज्ञायतनमें विहार करना और ८वां अपने आपको देखो। जो प्रमादका परित्याग कर इस नैव संज्ञानासंबायतनका अतिक्रम कर ज्ञान और ज्ञाता धर्ममें विहार करेंगे वे ही जन्म और संसारका उच्छेद दोनोंका निरोध माधन कर संज्ञावेदयितृनिरोधकी उप. कर मदाके लिये दुःखसे मुक्त होंगे। लब्धि होना। ____अमंतर बुद्धदेव भिक्षाओं के साथ भण्ड नामक ग्राममें अनतर बुद्धदेव वैशाली-महावनकी कुटागारशाला- . गए । वहां उन्होंने कहा था, 'हे भिक्ष गण ! शील, समाधि, में गए। उनके आदेशानुसार आन'दने मन्त्र भिक्षु कोंको प्रज्ञा और विमुक्ति इन्हीं चार प्रकारके अनुशीलनसे बुलाया। बाद बुद्धदेवने उन लोगोंसे कहा, हे भिक्ष - मनुष्य मसारपथमें बहुत दिन तक चक्कर लगाते हैं। गण! मैंने जो धर्मोपदेश किया है. तुम लोग अच्छी बाद वे यथाक्रम हस्तिग्राम, आम्रप्राम, जम्बूग्राम तरह उसकी पर्यालोचना कर मनुष्यकी भलाई और सुख- और भोगनगर पधारे। उन्होंने भोगनगरके आनन्द- के निमित्त संसारमें ब्रह्मचर्य स्थापित करना। और है । चैत्यमें बिहार करते समय कहा था,-हे भिक्ष गण भिक्ष गण ! मेरे कहे हुए धमोमेंसे सैंतीस विषय भली : यदि कोई भिक्ष आ कर तुम लोगोंसे कहे, कि उन्होंने भांति याद रखना जो ये हैं -चार स्मृत्युपस्थान, चार ! अमुक वाक्य भगवान् बुद्धदेवसे सुना है, भिक्ष संघसे सम्यक प्रहाण, चार ऋद्धिपाद, पांच इन्द्रिय, पांच बल, उसका उपदेश पाया है, किसी आवासमें कई एक स्थविर सात बोध्या और आठ मार्ग। शरीर अपवित्र है, भिनने मिल कर उन्हें उक्त वाक्य कहा है, तो तुम लोग वंदना दुःखमयी है, चित्त चञ्चल है तथा सभी पदार्थ उनकी बात पर पहले विश्वास या अविश्वास न करना । अलीक हैं: ऐसी भावनाका नाम चतुःस्मृत्युपस्थान उनके कहे हुए वाक्यको सूत्रपिटक या विनयपिटकके है। अर्जित पुण्यकी रक्षा, अलब्ध पुण्यका उपार्जन, साथ मिला कर देखना, यदि सूत्र अथवा विनय में तदनु- पूर्वसञ्चित पापका परित्याग और नतन पापकी अनु- रूप वाक्य रहे तो समझना, कि उक्त भिक्षु ने अमुक त्पत्ति, इन चार प्रकारकी चेष्टाका नाम चतु:- , वाक्य भलीभांति प्रहण किया है और तब तुम लोग भो