पृष्ठ:हिन्दी विश्वकोष पंचदश भाग.djvu/५३५

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५२६ बौद्धधर्म जन्मजन्मान्तरमें प्रथितं है, वह आदर्शसूत्र पार्थिव अनित्य जन्म और पुनर्जन्मके कारणका नाम है कम । अतः वस्तुके मध्य नहीं गिना जाता। ऐसा कहा जाता है, कि नाम और पुनर्जन्मकी धारा- ___एक और भी कठिन समस्या है। बौद्धधर्म प्रन्थमें | वाहिक समष्टिका नाम संसार है। कर्म का आरम्भ बहत-सो पौराणिक गल्प पायो जाती हैं। नहों, किन्तु अन्त हो सकता है। इस अवस्थाप्राप्तिके . इन सब विषयोंको आलोचना करनेसे यही मालूम आठ पथ निर्दिष्ट हुए हैं। होता है, कि परवत्तों बौद्धशास्त्रप्रथमें जिस धर्म की मुक्तिपथ । कथा पाई जाती है, महात्मा बुद्धका प्रचारित मूलधर्म निर्वाणकामी जीवको चार अवस्थाका अतिक्रम करना उससे पृथक है। किसी किसो पण्डितका कहना है, ' पड़ता है। जो क्रमागत इन चार अवस्थाको प्राप्त हुए हैं, कि महात्मा शाक्यबुद्धने कम वादका प्रचार नहीं किया वे यथाक्रम श्रोतः आपन्न, सकृदागामी, अनागामी और और न अतिरञ्जित उपन्यास, रूपक गल्प या आख्ययिका अर्हत कहलाते हैं। इनका साधारण नाम श्रावक या ही उनके ज्ञानगर्भ तथा तस्वज्ञानपूर्ण उपदेशको कलङ्कित सेवक है। प्रत्येक अवस्था फिर दो भागमें वो है ; कर सकती है। उनके निर्वाणप्राप्तिके बाद जितने धर्म- जैसे मार्ग और फल । प्रथ सङ्कलित हुए हैं, उतने ही वे नानारूप आवर्जना मुक्तिकामीकी चार अवस्था। तथा जंजालजालसे पूर्ण हैं। (१ जिनने प्रथम अवस्था प्राप्त की है उनका नाम अवान्तर विषयके सम्बन्धमें जो कुछ हो, बौद्धधर्म है श्रोतःआपन्न। इन्होंने संयोजन ( मानवप्रवृत्ति ) के को मूलनोतिका कोई विशेष परिवर्तन नहीं हुआ है। प्रथम तीन बन्धनका अतिकम किया है, उन्हें अपाय या दार्शनिकसज्ञा प्रदान करनेसे बौद्धधर्म को निरोश्वर माया किसी विपद्का भय नहीं। वाद कहा जा सकता है। पाश्चात्य दार्शनिक वार्कलो- (२) जो फिरसे मनुष्ययोनिमें जन्म लेते हैं, वे का मायावाद भी इसी प्रकारका है। वाह्य जगतकी एक सकृदागामी हैं। वे केवल सन्देहादि प्रथम तीन बन्धम- सस्था है, इस भान्त संस्कारके वशीभूत हो कर मनुष्य से मुक्ति नह , से मुक्ति नहीं पाते ; इसके सिवा उन्होंने राग ( अनुराग, नाना प्रकारके भ्रममें पतित होते हैं। मनुष्य अपनी । स्नेह, ममता ), द्वेष और मोह इन नोन शत्र ओंको वशी. भूत किया है। अनुभूतिके सिवा और कुछ अनुभव नहीं कर सकते, (३) जो अनागामी पांच बन्धनसे मुक्त हुए हैं। वे स्वयं ही अपनो अनुभूतिके कारण हैं। स'सारके : कामलोकमें उनका पुनर्जन्म न हो कर ब्रह्मलोकमें ही जन्म समस्त ज्ञात और शेयपदार्थ कर्साके ज्ञानानुसार हैं।

होगा।

वे सभी 'अह' अर्थात् 'मैं' के फलस्वरूप हैं ; 'मैं' के लिये : (४) अर्हत् · जो समुदय अपवित्रता दूर कर सास्त 'मेरे' द्वारा 'मुझ' में हो वर्तमान है। बालोके मतसे 1 क्लेशोंकी उपेक्षा करने में समर्थ है, किसी प्रकार के प्रलो- ईश्वरवाद है, किन्तु बौद्धमतसे नहीं ; सिर्फ इतना हो | हा, सिर्फ इतना ही भनसे भी जो नीतिपथसे विन्युत नहीं होते, जिनके प्रभेद है। समस्त कर्तव्यकर्म सम्पन्न और सभा बन्धन छिन्न हुए सत्त्वाका विभिन्न उपादान । हैं, वे ही अह त् हैं। वे चार प्रकार की उच्चप्रकृति लाभ प्रत्येक जीवके दो विभिन्न उपादान हैं, नाम और करते हैं-उनका फिर पुनर्जन्म नहीं होता। रूप। नाम द्वारा मानसिक गुण और रूप द्वारा वाह्य- निर्वाणा। गुण प्रकाशित होते हैं। वेदना, संज्ञा, संस्कार तथा जो उक्त चार अवस्थाका क्रमागत अतिकम कर मुक्ति विज्ञान पे चार गुण 'नाम' द्वारा और मृत्तिका, वारि, पथके पथिक हैं, वे ही प्रकृत आर्य है। आर्यके जीवन- अग्नि तथा मरुत् ये चार महाभूत तथा इनसे उत्पन्न | का मुख्य उद्देश्य है निर्वाणलाभ । निर्वाणके विषयमें सभी पदार्थ 'रूप' द्वारा प्रकाशित होते हैं। बहुत कुछ कहना है, यहां पर संक्षेपमें दो एक बातें

  • उपयुक्त सभी गुण या स्कन्धको समष्टि अथवा दी जाती हैं।

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