पृष्ठ:हिन्दी विश्वकोष पंचदश भाग.djvu/५४४

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पौद्धधर्म (४) 'सावदानवारिया' (सावदान-चर्या ) एक को दीक्षा नहीं दी जाती थी। रमणियोंके दीक्षाग्रहण में द्वारले दूसरे द्वार पर नियमानुसार भिक्षा मांगनी चाहिए। चौबीस अन्तराय थे। (५) एकासनिक ( ऐकासनिक)- एक आसन प्रव्रज्या और दीक्षा या उपसम्पदाको पृथकता ले कर पर बैठकर आहार करना चाहिए। बौद्धप्रन्थोंने अनेक समय बड़ा हो गोलमाल किया है। तब (६) पत्तपिण्डिक (पात्रपिण्डक ) एक पात्रसे एक प्रकारसे यही समझ लेना यथेष्ट होगा, कि संन्यास- आहार, (उत्तर प्रदेशीय बौद्धोंमें यह नियम चाल धर्मग्रहणके लिए गृहत्यागका नाम प्रवज्या और उस नहीं है।) धर्ममें दीक्षित होनेका नाम उपसम्पदा है। बौद्धधर्म- (७) 'खलुपच्छाभत्तिक'--आहार्य द्रव्य असङ्गत प्रन्थ पढनेसे जाना जाता है. कि बद्धदेवने पहले साठ मालूम होनेसे उसे न स्याना । शियों को मिक्ष पदमें वरण किया। इन्होंने थोड़े समय में 1८) आरण्यक- वनमें बास करना। ही ब्रह्मचर्यधर्मका उत्कर्ष दिवाया था। जब बुद्धशिष्य () रुकखमूलिक' ( वृक्षमूलिक )- वृक्षके नीचे धर्मप्रचारसे लौट आये, तब उनके साथ बहुतसे मनुष्योंने वास करना। आकर बुद्वदेवसे प्रवज्या और उपसम्पदाकी दीक्षा मांगी। (१०) 'अवभोवासिक' ( अभ्योवकासिक ) अना- उसी समयसे उन्होंने ऐसी अनुमति दी, कि भिक्ष गण- च्छादित स्थानमें रहना। भो दीक्षा प्रदान कर सकते हैं और उसी समयसे मस्तक (११) 'सोसानिक' ( श्माशानिक ) श्मशानमें तथा श्मश्रु-मुण्डन और काषायवस्त्र पहननेका नियम अथवा उसके समीप बास करना । प्रवर्तित हुआ। (१२) 'यथासन्थतिक' ( याथासंस्तारिक )- जहां। उस समय दीक्षाग्रहणकारियों के तीन आश्रय लेने रात हो जाय, वहीं डेरा करना। । पड़ते थे- बुद्ध, धर्म और सङ्घ--"बुद्ध शरणं गच्छामि (१३) 'नेमजिक' (नैशय्यक )-निद्राकाल में भी धर्म शरणं गच्छामि सङ्घ' शरण गच्छामि ।" (१) शयन न कर बैठे रहना। प्रवज्याग्रहण और भिक्षु मम्प्रदायमें प्रवेश एक ही ___ उक्त नियम सबोंके लिये प्रयोजनीय नहीं है, तब समय हो सकता था जिसके अनेक दृष्टान्त हैं। (२) इनका पालन करना अच्छा ही है। आठवेंसे ले कर बौद्ध ालक जब सात बर्षके होते थे, तब वे पितामाता- ग्यारहवें तक संन्यासियोंके लिये प्रयोज्य नहीं है । ग्यारवें- को अनुमति ले ब्रह्मचर्यका अबलम्बन कर वे भिक्ष धर्म- से तेरहवें तक उनके लिए बिलकुल निषिद्ध है। गृहीके प्रहणकी अपेक्षा करते थे। जब तक बीस वर्षकी उन्न लिये केवल ५वां और छठा प्रतिपाल्य है। न हो जाती थी, तब तक कोई भी प्रवज्या प्रहणका प्रव्रज्या, उपसम्पदा। अधिकारी नहीं होता था, सुतरां श्रमणोंको १२ वर्ष तक जब कोई पुरुष अथवा रमणी संसारके भोगसुखका ब्रह्मचर्य सीखना पड़ता था। इस समय वे दश प्रकार परित्याग कर भिक्षु जोवन बितानेके अभिलाषो या अभि- : शिक्षापाठका अभ्यास करते थे। लाषिणी होती थी, तब उन्हें भिक्ष सम्प्रदायमें ले। न उभिन सम्प्रदायमें ले अन्य धर्मावलम्बो कोई यदि संन्यासग्रहणकी इच्छा लिया जाता था। इसमें जाति या मर्यादाकी विशेषता करते थे, तो उन्हें भी यथारीति नियमका पालन करना न थी। ..ल दस्यु, तस्कर, क्रीतदास, युद्धव्यबसायो । और परोक्षाके लिए उन्हें कुछ दिन तक ठहरा पड़ता। और रोगग्रस्त या महापापी व्यक्ति नहीं लिए जाते थे। सङ्घमें प्रवेश करनेका नाम प्रवज्या और (१) महानग्ग नामक पालि ग्रन्थमें यह 'त्रिशरणागमन' कहलाता भिक्षु क या श्रमण धर्म में दीक्षित होनेका नाम उपसम्पदा । है । भोट देशीय व्युत्पत्तिग्रन्थमें त्रिशरणका ऐसा अर्थ किया गया है। प्रव्रज्या ग्रहणमें जिस प्रकार दस्युतस्करादि है-'बुद्ध द्विपदानामग्य धर्म विरागनामप्रथसंघं गणानाम अर्थ अयोग्य गिने जाते है, उसी प्रकार कुकर्मान्वित मनुष्यों-, (२) दीपवंश १२६२ ।