पृष्ठ:हिन्दी विश्वकोष पंचदश भाग.djvu/५५४

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बौधर्म पूर्णिमा तथा प्रतिपक्षको चतुर्दशी यही चार दिन धर्म लोगोंकी एक मिसल या रथयात्रा होती थी। सिंहल और चर्चा के लिए अवधारित है। धर्मसूत्रकी जो विधि है, ब्रह्ममें अब भी यही प्रथा प्रचलित है। वह विभिन्न प्रदेशों में विभिन्न अर्थ में गृहीत होनेके कारण बाद इसके बौद्धभक्तगण श्रमण अर्थात् भिक्षुओंको वस्त्र- ऐसा पार्थक्य मालूम पड़ता है । सिंहलमें निर्दिष्ट | दान करते थे। कमसे कम पांच भिक्षु मिल कर निर्धा- विश्रामदिनके साथ मनु के विधानका सामञ्जस्य है ।। रित करते थे, कि किन किन भाइयोको वस्त्रको आवश्य- आपस्तम्बके विधानानुसार अमावस्याके समय दो समय हो कता है। यह निश्चित हो जाने पर भिक्षु और गृहीगण दिन विश्राम देने की विधि है। एकत्र हो भिक्ष ओंका परिधेय परिच्छद प्रस्तुत और उसे पोतवणसे रंगा देते थे। चौबीस घण्टेके भीतर यह सब उपोसथ विश्रामका दिन है। इस दिन वाणिज्य या काम सम्पन्न होता था। अन्य कोई काम करना मना है, यहां तक, कि विद्यालय सिंहलके बौद्धगण वसन्तकालके प्रारम्भमें एक उत्सव अथवा विद्यालयका कार्य भी बन्द रहता है। मछली करते हैं। मारके विनाश करनेके उपलक्षमें यह उत्सव पकडने या शिकार खेलने तककी मनाही है। प्राचीन कालसे इस दिन उपवासकी प्रथा प्रचलित है। गृहस्थों- मनाया जाता है। श्यामदेश में इस उत्सवका नाम संक्रान अर्थात् संक्रान्ति है। इसका विवरण पढ़नेसे को इस दिन परिष्कृत वस्त्र पहनना और शुद्ध चित्तसे साफ साफ मालम होता है, कि यह हिन्दुओंके वसन्तो. रहना चाहिए। उक्त आठ प्रकारके उपदेशोंका प्रति- त्मवका अनुकरणमात्र है। पालन करना उनके लिए पुण्यकार्य है। वैशाखी पूर्णिमामें एक बौद्ध-उत्सव होता है जिसका प्रत्येक विश्रामदिनमें धर्मप्रचार और उपदेश प्रदान नाम है वैशास्त्री-पूजा। इस दिन बुद्धदेवने जन्मग्रहण करना साधारण रीति है। धर्मग्रन्थसे कुछ पढ़ने का भी किया था और इसी तिथिको उन्हें बुद्धत्व तथा निर्वाण नियम है। पहले भिक्षगण इस कामके अधिकारी थे। लाभ हुआ था। यह उत्सव श्यामदेशमें हो समधिक फिलहाल सिंहलके हरएक घरमें जा कर अन्यान्य व्यक्ति प्रचलित है। पहले सिंहलमें भी इसका विशेष प्रच- भी देशीय भाषामें धर्मग्रन्थका पाठ करते हैं। लन था। इसी उत्सवका स्मृतस्वरूप आज भी बङ्गाल- ___ वर्षाकाल ही धर्मप्रचारका प्रशस्त समय है। बौद्ध- के नाना स्थान तथा मयूरभामें वैशाखी पूणिमाको धर्मके प्रवर्तन समयसे ही यह प्रथा चली आती है। धर्मका गाजन या उड़ापर्व होता है। प्राचीन कालमें भारतवर्ष में धर्मकार्यके लिए एक नई तीन बौद्धधर्मका जिस समय विशेष प्रभाव था, उस भागमें बंटा था। प्रत्येक फाल्गुनी, आपाढ़ी और समय प्रति पांच वर्षके अन्तमें एक पाचवार्षिक उत्सव कार्तिको पूर्णिमा वलि प्रभृति द्वारा चातुर्मास्त्र आरम्भ मनाया जाता था। इसका दूसरा नाम था 'महामोक्ष. होता था। बौद्धोंने यही प्रथा कायम रखी है, पर परिषद' । इस समय भिक्षु ओंको तथा सङ्घमें भी पशुबलि आदि प्रचलित नहीं है। प्रचुर उपहार दान किये जाते थे। कन्नोजक प्रसिद्ध वर्षाकालका निर्जनवास आषाढ़ मासको पूर्णिमा या सम्राट हर्ष शिलादित्य नियमितरूपसे यह उत्सव खूब इसके एक महीने बादसे शुरू होता है। सिंहल प्रदेशमें । हिल प्रदेशमे धूमधामसे मनाते थे। तीन महीने तक निर्जनवास करना पड़ता है। जिस सङ्गीति या महाधर्मसभा । दिन इस निर्जनवासका शेष होता है, उसका नाम प्रवा- दो प्रधान घटनाएं ठीक एक सौ वर्षके अन्तर पर घटी रणा है। इस दिन पांच या इससे अधिक श्रमण इकट्ठ थो। यथा दो सङ्गीति या धर्मसम्मिलन । सभी बौद्ध- हो कर सङ्घ के विधानावलीको आवृत्ति करते हैं। धर्मग्रन्थमें इस सङ्गीतिका विवरण मिलता है । इन सब महोनेकी चतुर्दशी और पूर्णिमामें यह पारा विभिन्न विवरणमें कहीं कहीं पर कुछ कुछ विशेषता यण उत्सव सम्पन्न होता था। इन दो दिनों में श्रमणों- मालूम पड़ती है, किन्तु वह अत्यन्त सामान्यके और को उपहार देना और भोजन करना पड़ता था तथा उन | धर्तव्यके मध्य नहीं है।