पृष्ठ:हिन्दी विश्वकोष पंचदश भाग.djvu/५५८

विकिस्रोत से
यह पृष्ठ अभी शोधित नहीं है।

५५२ बौद्धधर्म कृत सम्राट अशोककी गिरिलिपिसे उसका स्पष्ट प्रमाण पहले सैकड़ों यज्ञशालामें हजारों पशुबध होता था। मिलता है। उक्त गिरिलिपि विनयपिटकका सारांश अशोकने पशुबध रोकनेके लिए ऐसा अनुशासन प्रचार 'धिनयसमुत्कर्ष' नामक प्रतिमोक्ष, सूलपिटकके अंगुत्तर किया था:- निकायके अन्तर्गत आरण्यक 'अनागत् भय' सूत्र, विनय ___ "देवताओंके प्रियराजा प्रियदशीका कहना है, कि पिटकके महावगगके अन्तर्गत 'उपतिष्यप्रश्न' वा 'शारि अभिषेकके ६ वर्ष बाद निम्नलिखित जीयोंका बध पुत्रप्रश्न' सूत्रपिटकके सुत्तनिपातके अन्तर्गत 'मुनिगाथा' निवारित हुआ-- नामक १२श सूत्र, मझिमनिकायके अन्तर्गत 'लाघुलो शुक, शारिका, अलुन, चक्रवाक, हंस, नान्दीमुख, वादमें मृपावाद' या अम्बलठिका राहुलोवाद नामक गिलाट जतुका, अम्बाकपीलिका, दन्दी, अलठिका, मत्स्य, ६१ सूत्र इत्यादि प्राचीन बौद्धग्रन्थावलीका स्पष्ट उल्लेख वेदवेयक, गङ्गापुत्रक, संयुद्धमत्स्य, ककटशन्यक, पन्न- है। प्रियदर्शी शब्द देग्यो । सस्, सृमर, षण्डक, ओकापिण्ड, पलसत, श्वेतकपोत, अशोकके शासनकालमें बौद्धधर्मका प्रचार । | प्राम्यकपोत और अन्य सभी चतुष्पद (जीव ), जिसका पहले ही कहा जा चुका है, कि अशोक के राजत्व- भोग नहीं लगता और न खाया ही जाता है; अजका (छागी) कालमें पाटलिपुत्रमें सङ्गीतिका अधिवेशन हुआ था; एड़का (भेडी ), शूकरी, गर्भिणी या दुग्धवती तथा यह विश्वसनीय है। अशोकविन्दुसारके पुत्र और उनके छः मासके छोटे बच्चे भी अवध्य हैं। अनिष्टार्थ चन्द्रगुप्तके पौत्र थे। सम्भवतः ३१६ ईस्वीसन्के पहले या हिंसाथ बनमें आग न लगानी चाहिए और न जीव अशोकका राज्याभिषेक हुआ था। प्रियदर्शी देखो। द्वारा दूसरे जीवका पालन ही करना चाहिए । तीन चतु- अशोकके समयके जो सब अनुशासनादि मिलते हैं, र्मास्यमें, पौष पूर्णिमा, चतुर्दशी, अमावस्था तथा प्रतिपद्- उनमें देखा जाता है, कि बौद्धधर्म में दीक्षित हो कर में और प्रति उपवासके दिन मत्स्य अवध्य है इस यद्यपि उन्होंने इस धर्म प्रचार के लिए यथासाध्य चेष्टा को समय बेचना भी मना है। अष्टमी, चतुर्दशी तथा पूर्णि- थी और बहुत सा धन भी खर्च किया था, तो भी आजीवक, मामें तिष्य और पुनर्वासु नक्षत्रयुक्त दिन में, तोव चातुर्मास्य निम्रन्थ प्रभृति सम्प्रदायको उन्होंने नहीं सताया। किन्तु और पर्गदिनमें वृष, अज, मेष, शूकर तथा अन्यान्य बौद्धोंने उक्त सम्प्रदायके मनुष्योंको सब समय कृष्णवर्ण- जीवको खस्सी न करना चाहिए। तिप्य और पुनर्वसु में चित्रित करने में एक भी कसर उठा न रखी। अशोकके नक्षत्रमें, चतुर्मास्य पूर्णिमा तथा पक्षमे अश्व या गो उनके प्रति अत्याचार नहीं करनेके कारण बौद्धगण कभी लाञ्छित करना उचित नहीं" कभी उनसे अप्रसन्न रहते.थे। (५म स्तम्भनिपिका अनुवाद) उन्होंने बौद्धधर्म का अवलम्बन कर जिन सब अनुशा- बुद्धदेवके जीवनकालमें मध्यदेश और प्राच्य या शनका प्रचार किया था, उनसे जाना जाता है, कि वे युवा- पूर्व भारतमें बौद्धधर्म जो प्रचारित हुआ था, उसका वस्थामें बौद्धधर्म के लिये यथेष्ट अर्थव्यय कर अपनेको पता बौद्धधर्म अन्धसे मिलता है। अशोकके बौद्ध- एक भिक्षु बतला गए हैं। उनके राजत्वकालमें बौद्ध धर्म में दीक्षित होनेके पहले तक अन्य किसी स्थानमे' धर्म भारतका में उन्नतिकी चरम सीमा पर था। जब धर्म प्रचारको कोई विशेष चेष्टा नहीं होती थी। अशोक- वृद्धावस्थामें वे मन्त्रियों और राजकुमारोंके परामर्शानु- के समयसे ही बौद्धधर्म का प्रभाव नाना स्थानोंमें फैल सार चलने वाध्य हुए, उसी समयसे बौद्धधर्म प्रचारके गया, यह सर्ववादिसम्मत है। किन्तु प्रचारको प्रणाली लिए खर्चकी कमा हो गई , ऐसा बौद्धधर्म ग्रन्थ पढ़नेसे लेकर अनेक प्रकारका मतभेद देखा जाता है। मालूम होता है। अधिक क्या, अशोकके समय यथार्थमें अशोकके राजत्वकालमें बौद्धधर्म प्रचारका प्रधान 'अहिंसा परमोधर्मः” रूप मूलमन्त्र केवल भारतवर्ष में केन्द्र सिंहल ही था। पहले ही लिखा जा चुका है, कि ही नहीं, देश देशान्तरमें भी प्रचारित हुआ था। इसके निर्वाणप्राप्तिके पूर्व बुद्धदेवकी भविष्यवाणी थी, कि २३६