पृष्ठ:हिन्दी विश्वकोष पंचदश भाग.djvu/५६७

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बौद्धधर्म प्रकारके मत प्रचलित हैं। ये ही कई एक सम्प्रदाय नाम- परित्याग और कठोर साधना कर सिद्धि प्राप्त की थी। धीरे मालके लिए विरत्मको मानते हैं, किन्तु उनके निकट धीरे उसी धर्म ने बौद्धसाधारणके प्रधान उपास्य तथा इसका अर्थ अन्यरूप है। वे बुद्धका अर्थ मन, धर्मका युद्ध और शक्तिके मध्य सर्वप्रधान आसन पाया। जो भूत और सङ्घका अर्थ दोनोंके साथ जड़ जगतका सम्पर्क, शून्यबाद बौद्धधर्म का प्रधान लक्ष्य था, वही महाशन्य ऐसा लगाते हैं। स्वाभाविकगण चार्वाक है, ऐश्वरिक नैथा. धर्म देवताके नामान्तरसं गण्य हुआ और इसी निराकार यिक और मीमांसक तथा कार्मिक और यात्निक गण देव महाशून्यसे सभी वुद्ध, देवदेवी तथा सर्वाजगत्की तथा पुरुषकारवादी हैं। यद्यपि बहु पूर्वकालसे ये सब उत्पत्ति कल्पित हुई। मत प्रचलित हैं किन्तु विरत्नके साथ मम्बन्ध और हिद् तथा मुसलमानप्रभावसे महायान बौद्धप्रभाव विलुप्त सङ्घकी अभूतपूर्व व्याख्याको आलोचना करनेसे ये मब होने पर भी जनसाधारणके हृदयमें उक्त धर्म देवता जिस मत अभी नेपालमें प्रचलित हैं, उसमें सन्देह नहीं। आसनको बिछाये बैठे थे, कि उन्हें सहजमें कोई भी वहांसे बौद्धधर्मकी शेष स्मृति तथा प्रच्छन्न बाट सम्प्रदाय । बिच्युत नहीं कर सका था। जो धर्म देवताको भूतपूर्ण जिस बौद्धधर्मने ढाई हजार वर्ष तक पूर्ण भारतमें , बौद्धधर्मावशेष बतला कर नहीं छोड़ सके, गोड़वङ्गके ब्राह्मण- प्राधान्य लाभ किया था, आबालवृद्धवनिता जिस धमें प्रधान समाजमें वे ही हीन जातिमें परिणत हुए। उनके हजारों वर्ण अभ्यस्त थी, वही बौद्धधर्म पूर्व भारतसे एक-: वंशधरगण आज भी धर्म ठाकुर के सेवक या पूजक हैं। बारगी तिरोहित होगा, ऐसा कदापि सम्भव नहीं। मालूम होता है, कि महायान-प्रभावकी शेषावस्था धर्मकी ____ महामहोपाध्याय हरप्रसाद शास्त्रो महाशयने प्रमाण नारीमूर्ति बनाने पर भी बङ्गाके धर्मपूजकोंसे दो एक स्थलके किया है, कि वङ्गदेशमें धर्मपण्डितोंके मध्य अब भी सिवा सभी जगह वह मूत्ति आदत थी। वास्तवमें उनके प्रच्छन्न बौद्धधर्म विद्यमान है । सोम तथा शीतलापंडितों- कोई रूप न था, पर कहीं कहीं ध्यानी मनमत्ति धर्मराज- ने भूतपूर्व बौद्धप्रभावकी क्षीण स्मृति बना रखी है। रूपमें पूजित होतो हैं। किंतु अनेक स्थानास जो धर्म- धर्मठाकुर शब्द देखो। ठाकुरका ध्यान पाया गया है उसे पढ़नेसे ही शून्यमूर्तिका महायान और इस सम्प्रदायसे उद्भूत मन्त्रयान तथा परिचय पाया जायगा । वजयानोंके नाना बुद्ध, बोधिसत्त्व तथा नामा शक्तिमूत्ति “यस्यान्ता नादि मध्यं न च करचरणी नास्तिकायो निर्याद और उनको पूजाका प्रचार करने पर भी अनेक कुसंस्कार नाकारी नैव रूपं न च भयमरगो नास्ति जन्मानि यस्य । और भावर्जनासे विशुद्ध बुद्धमत्त अन्धकारावृत्त था सहो, . योगीन्द्र ज्ञानगम्यं सकलदलगत सवलोकैकनाथं पर महायानगण बिलकुल लक्ष्यभ्रष्ट नहीं हुए थे। उनका भक्तानां कामपूर मुरनरवरदं चिन्तयन् शून्यभूति ।" लक्ष्य उसी महाशून्यवादको ओर था। बौद्धगण अपने धर्म- यह शून्यमूर्ति किस प्रकार हुई, उसका विवरण को 'धर्म' या 'सद्धर्म' तथा अपनेको 'सद्धर्मी' बतलाते थे। सर्वदर्शनस'ग्रह-बौद्धदर्शन प्रस्तावमें इस प्रकार देखा क्या होनयान क्या महायान दोनों संप्रदायमें त्रिरत्न- जाता है:-- का यथेष्ट सम्मान था। परवत्ती महायानोंसे त्रिरत्न "अस्ति नास्ति तदुभयानुभयचतुष्कोटिविनिमुक्त शून्यरूपं ।" हो मूर्तिपरिग्रहमें उपासित हुए। धर्म स्त्रीमूर्ति बन । वास्तवमें बौद्धोंका सर्वोच्चदर्शन ही शून्यवाद है। कर बुद्धदेवके वाम पार्शमें और सङ्घ पुरुषमूर्तिमें परि- : प्रज्ञापारमिता आदि प्रसिद्ध बौद्धग्रंथोंमें शून्यता और महा- णत हो कर बुद्धके दक्षिण पा में अधिष्ठित तथा पूति । शून्यताकी विशेष आलोचना हुई है। किसी भी हिंदूशास्त्र- होने लगे। विरलका ऐसा परिवर्तन-चित्र गयाके ने ऐसे शून्यवादका समर्थन नहीं किया है तथा पर- महाबोधिसे आविष्कृत प्राचीन भास्कर शिल्पसे पाया वत्ती हिन्दूदार्शनिक शून्यवादका खण्डन करनेमें यनवान् गया है। जिस धर्म के लिए बुद्धदेवने अतुल राजैश्वर्यका हुए हैं। महायानोंके इस शून्यवादकी आलोचना करनेका

  • Ounningham's Mahabodhi p. 55, plate xv, कारण यह है कि यद्यपि महायान सम्प्रदाय अभो अङ्ग बङ्ग

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