पृष्ठ:हिन्दी विश्वकोष पंचदश भाग.djvu/५८०

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५७४ वैदान्तिक आचार्योंके साधारणतः भव तवादी होने सुवर्णादिमें अवश्य ही है। क्योंकि कार्य भौर कारण जब पर भो, उनमें भी प्रकारान्तरसे द्वैतवादका नितान्त एक वस्तु है तब एकत्व और नानात्व धर्म भो अवश्य ही मादाय नहीं है. वैष्णव भाचार्यगण प्रायः सभी कार्य और कारणगत होंगे। विशिष्टाद्वैतवादी हैं। ब्रह्म सर्वश, मर्वशक्तिमान और किसी किसो आचायने इस दोषके परिहारके. निखिलकल्या गगुणके आश्रय हैं। जीवात्मा सभो। लिये अन्यान्य सिद्धान्त किया है। उनका कहना है कि बह्म के अंश हैं, परस्पर भिन्न और ब मके दास हैं। भेद और अभेद अवस्थभेदसे होता है अर्थात् अवस्था जगत् ब्रह्मका शक्ति विकाश और परिणाम है; सुतरां भेदसे एकत्व और नानात्व दोनों ही सत्य हैं। सत्य है। सशत्वादि गुगविशिष्ट ब्रम हैं, सत्य- संसारावस्थामें नानात्व और मोक्षावस्थामें एकत्व स्वादि गुणविशि र जगत् है, और अल्पज्ञ एवं धर्माधर्मादि है। अर्थात् संसारावस्थामें जीव और ब्रह्म भिन्न गुण-विशिष्ट जीवात्मा अभिन्न है अर्थात् जीवात्मा जगत् । हैं, और लौकिक तथा शास्त्रीय व्यवहारमें सत्य है। बससे भिन्न हो कर भो भिन्न नहीं है। जीव और मोक्षावस्था, जीव और ब्रह्म अभिन्न है तथा तभी बह्मको स्वरूप अभिन्न नहीं है, किन्तु आदित्यके प्रभाव लौकिक और शास्त्रीय समस्त ध्यवहार निवृत्त होते हैं, को भांति जब व नसे भिन्न नहीं है, परन्तु ब्रह्म जीवसे यह सिद्धान्त भो सङ्गत नहीं है। कारण 'तत्त्वमसि' अधिक है। जैसे प्रभासे आदित्य अधिक है. उसो प्रकार 'अहं ब्रह्मास्मि' इत्यादि श्रति-बोधित जोवके ब्रह्मभाव जीवसे ब्रह्म अधिक है। ब्रह्म सर्वशक्तिमान् और अवस्थाविशेष में नियमित नहीं है। क्योंकि ब्रह्मात्म समस कल्याणगुणका आकर है, धर्माधर्मादिशून्य जीव भाव बोधक श्रुतिमें अवस्थाविशेषका उल्लेख नहीं है। उससे विपरोत है। जीवका असंसारिब्रह्माभेद सनातन अर्थात् सर्वदा विद्य- ब्रह्मभेदाभेद, द्वैताद्वैत और भनेकान्तवाद विशिष्टा | मान है, यहो श्रुति द्वारा जाना जाता है। श्रुतिमें कहा द्वैतवादका नामान्तर मात्र है। ब्रह्म एक भी है, भनेक भी गया है, कि वह सिद्ध सदृश है । श्रुतिवाक्यको अवस्था- हैं। वृक्ष जैसे अनेक शाखायुक्त होते हैं ब्रह्म भी वैसे ही | विशेषमें अभिप्रायको कल्पना निष्प्रमाण हैं। 'तत्वमसि' भनेक शक्तियुक्त नाना हैं । अतवादियोंके मतसे यह मत इस श्रुति-बोधित जोवका ब्रह्मभाव किसी प्रकारके प्रयत्न भ्रमात्मक है। कारण, दो वस्तु एक समयमें परस्पर भिन्न वा चेष्टा साध्यरूपमें निर्दिष्ट नहीं हुआ है। 'असि' और अभिन्न नहीं हो सकता। क्योंकि भेद और अभेद । इस पदसे स्वतःसिद्ध अर्थका मात्र प्रज्ञापन किया परस्पर विरोधी है। अभेदका अथ ह भेदका अभाव | भेद गया है। भीर भेदका अभावका एक समयमें एक वस्तुमें रहना अतएव जो लोग कहते हैं कि, जीवका ब्रह्मभाव-शान असम्भव है। कार्य और कारण यदि अभिन्म हो, तो और कर्मसमुच्चयसे साध्य है, उनका सिद्धांत सङ्गत नहीं जगत् ब्रह्मसे अभिन्न हो सकता है। परन्तु कार्य और है और विवेच्य यह है कि एकत्व और नानात्व निवर्तित कारणके अभिन्न होनेसे जैसे मृतिकारूपमें घटशरावादिका नहीं हो सकता। कारण, यथार्थशान भयथार्थ ज्ञानका और सुवर्णरूपमें कुण्डलमुकुटादिका एकत्व कहा जाता और उसके कार्यका निवर्तक हो सकता है। यथार्थ है, उसी प्रकार घटशरावादि और कुण्डलादिका एकत्व क्या वा सत्य वस्तुका निवर्तक नहीं हो सकता। रज्जुझान नहीं होगा ? अर्थात् घटशरावादि और कुण्डलमुकुटादि परिकल्पित सर्पका निवर्तक होता है, परन्तु सुवर्णज्ञान अपमें जैसे नानात्व कहा जाता है, उसी प्रकार उसी रूपमें कुण्डलादिका निवर्तक नहीं होता । एकत्ववान द्वारा ही पकत्व भी क्यों कहा जाता है ? कारण, मृतिका, नानात्व निवर्तित नहीं होने पर माक्षावस्थामें भी बन्धना- और घटशरावादि तथा सुवर्ण और कुण्डलमुकुटादिके वस्थाके समान नानात्व रहेगा। सुतरां मुक्ति ही नहीं भभिन्न होनेसे मृत्तिका सुवर्णादिका धर्म एकत्व घट-: हो सकती। शरावादि भौर कुण्डलमुकुरादिका धर्म नानात्व मृत्-: शैवाचार्यगणं विशिष्ट शवाद्वैतवादो हैं । उनके मतसे