पृष्ठ:हिन्दी विश्वकोष पंचदश भाग.djvu/५८५

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ब्रह्म ५७६ पापका लोप और दुःस्त्रका भोग होता है। अतएव समझने के लिए वा उसमें टूढ़ विश्वास जमानेके लिए अविद्या हो सम्पूर्ण अनर्थों का मूल है। विद्याके द्वारा तर्ककी आवश्यकता हो सकती है, परन्तु तो भो सर्वानर्थमूल अविद्याका नाश करना बुद्धिमानका कर्तव्य . अपने अनुभवके अनुसार तर्क करना उचित है, है। किन्तु जिज्ञास्य यह है कि आलोकमें अन्धकारको कुतर्क करना उचित नहीं। फलतः जब सभी अपने तरह स्वप्रकाश ब्रह्ममें अविद्या कैसे रह सकतो है ? द्वितो. अज्ञानका अनुभव कर रहे हैं, तब अज्ञान किसके हैं ? यह यतः ब्रह्म इच्छा पूर्वक अपने लिए अनर्थकर मिथ्याज्ञान प्रश्न उठ नहीं सकता। स्वप्रकार ब्रह्ममें अज्ञान कैसे का अवलम्बन करेंगे, यह भी नितान्त असम्भव है । कोई सम्भव हो सकंता है, यह प्रश्न हो सकता है, पर इसका भी बुद्धिमान् व्यक्ति इच्छा-पूर्वक अपने लिए अनिष्टकर मूल्य नहीं। क्योंकि स्वप्रकाश ब्रह्ममें आशान जब विषय ग्रहण नहीं कर सकता। इसके उत्तर में यह कहना , साक्षात् अनुभूत होता है, तब अज्ञानके अस्तित्वमें सन्दे कि दोनों ही सम्भव हैं। करनेको गुंजाइश नहीं। अतएव अज्ञान सत्ताका कारण स्वप्रकाशक ब्रह्ममें अविद्या कैसे रह सकती है, अविद्या निर्णीत न होने पर भी कुछ हानिलाभ नहीं हो. किसकी है ? इस विषयमें वैदान्तिक आचार्यो ने विस्तृत मकता । तादृश अनुभव होता है इस कारण वैदान्तिक आलोचना को है। संक्षेपमें उसका यत्किञ्चित आभास आचार्योंने कहा है, कि नित्य स्व-प्रकाश चैतन्य अज्ञान- मात प्रदर्शित किया जाता है। का विरोधी नहीं है। क्योंकि नित्य स्वप्रकाश चैतन्यमें "स्वप्रकाशे कुतोऽविद्या तां विना कथमावृतिः । ज्ञान का अनुभव हो रहा है. इस कारण नित्य इत्यादि तर्कजालानि स्वानुभूतिर्घसत्यसौ ॥ स्वप्रकाश चैतन्यको: अज्ञानका विरोधी नहीं कहा जा स्वानुभूतावविश्वासे तर्कस्याप्यनवस्थितेः। सकता। कारण, विरोध भी अविरोधके अनुभवानुसार कथं वा तार्किकम्मन्यम्तत्त्वनिश्चयमाप्नुयात् । निर्णीत होता है । विवेक वा विचार जनित यथार्थ ज्ञान बुद्ध्यारोहाय तई चेदपेन्येत तथा सति । होने पर वह अज्ञान-विशिष्ट होता है, इसलिए विवेक- स्वानुभूत्यनुसारेण तय॑तां मा कुतय॑ताम् ॥” जनित ज्ञान अज्ञानका विरोधी है।। इसका तात्पर्य यह है कि, स्वप्रकाश ब्रह्ममें अविद्या रज्जु गोचर अज्ञान रज्जुस्वरूपको आवृत कर उसमें किस प्रकार रह सकती है ? अविद्या नहीं माने तो फिर मर्पका उद्भावन करता है । रज्जु-तस्वका साक्षात्कार ब्रह्मके स्वरूप आवरण किम प्रकार हो सकता है ? होनस रज्जु-गोचर अज्ञाम और उसका कार्य सर्प वाधित स्वानुभव तर्कजालको निराकृत करता है, अपने अनु होता है। रज्जु तत्त्वके साक्षातकारके पहले रज्जु गांचर भवसे हो यह सब अकिश्चित् करत्व प्रतिपन्न होता है। अज्ञान और उसका कार्य सर्प बाधित तो नहीं मालूम क्योंकि, मैं अब हूँ, मैं अपनेको नहीं जानता, इस प्रकारका पड़ता, किन्तु वास्तव में उस ममयमै भी वह बाधित भनुभव प्रत्यक्षसिद्ध है। स्वानुभव पर विश्वास न करने । रहता है। उस समय भी रज्जु सर्पका वास्तविक से जो अपनेको तार्किक समझते हैं, वे कैसे तत्त्वका आस्तत्व नहीं है। इसी प्रकार ब्रह्मतत्त्व साक्षात्कारके निश्चय करेंगे ? कारण, तर्क तो अवस्थित नहीं होता। बाद अज्ञान और उसका कार्य बाधित होता है। ब्रह्म- देखा जाता है, कि एक तार्किक जिस तर्कका न्यास करते तत्त्व साक्षातकारके पहले अज्ञान और उमका कार्य हैं, अन्य तार्किक उसे तर्काभास सिद्ध कर देते हैं। वाधित प्रतोयमान न होने पर भी उस स य वह उसका तर्क भी अन्य तार्किक द्वारा तर्काभासमें परिणत | वाधित ही रहता है। इसलिए श्रुतको आशा है, कि किया जाता है। इसलिए केवल तर्क के द्वारा तत्त्वका ब्रह्म नित्यमुक्त है। उसका बन्धन वास्तविक नहीं है। निश्चय नहीं किया जा सकता। अनुभूत विषय बुद्धया- सुतरां मुक्तिलाभ भी वास्तविक नहीं है । अतएव रूढ़ होनेके लिए अर्थात् जो अनुभव है उसे भलीभांति शास्त्राष्टिस अविद्या तुच्छ है, अर्थात् आकाश कुसुमके