पृष्ठ:हिन्दी विश्वकोष पंचदश भाग.djvu/५८६

विकिस्रोत से
यह पृष्ठ अभी शोधित नहीं है।

५८० ब्रह्म समान अलोक है । परंतु युक्ति दृष्टिसे अनिर्वाच्या अविद्या "लोकवेदविरुद्धरैरपि निर्लेपः स्वतन्त्रश्चेति महा- नहीं है, पेमा नहीं कहा जा सकता, क्योंकि वह सर्वत्र : पाशुपताः।" लोक और वेदके विरुद्ध होने पर ही स्पष्ट प्रतीयमान है। अविद्या है, ऐसा भी नहीं भी ब्रह्म स्वतन्त्र और निर्लेप ही हैं। यहो महा- कह सकते, क्योंकि वह नित्य-बाधित है, उसका पाशुपतोंका मत है। “शिव इात शैवाः ।" शैवोंके वास्तविक अस्तित्व नहीं रह सकता। लोक-दृष्टि : मतसे शिव हो ब्रह्म हैं। "पुरुषोत्तम इति धैष्णवाः।" अविद्या और उसका कार्य दोनों ही वास्तविक हैं। वैष्णवोंके मतानुसार पुरुषोत्तम बिष्णु ही ब्रह्म हैं ।"पिता कारण सभी उसका अनुभव करते हैं। सभी दार्शनिकों- मह इति पौराणिकाः" पौराणिकोंके मतसे पितामह ही ने यह स्वीकार किया है, कि ब्रह्म देहादिके अतिरिक्त ! ब्रह्म हैं। "यज्ञपुरुष इति याज्ञिकाः" याज्ञिकोंके अनुसार है। उसका संमार मिथ्याज्ञानमूलक है। तत्त्वज्ञान यज्ञ -पुरुष ही ब्रह्म हैं। "सर्वश इति सौगता" सौगतोंके द्वारा मिथ्याज्ञान दूर होने पर ब्रह्मको मोक्ष प्राप्त होता मतमे सर्वज्ञ ही ब्रह्म हैं। "निरावरण इति दिगम्बराः।" है । ( वेदान्तद.) दिगम्बरगण निरावरणको ब्रह्म कहते हैं। "उपास्यत्वेन कुसुमाञ्जलिवृत्ति ब्रह्मका लक्षण इस प्रकार लिखा देशित इति मीमांसकाः।" मीमांसकोका मत है, कि उपास्य-रूपमें जो निर्दिष्ट किये गये हैं, वे ही ब्रह्म हैं। "सत्यमानन्दमयममृतमेकरूपं वाङ्गनसोऽगोचरं सर्वगं सर्वातीतं चिदेकरसं देशकालापरिच्छिन्नमपाद- "लोकव्यवहारसिद्ध इति चार्वाकाः।" चार्वाकोंका कहना है, कि लोक व्यवहारमें जो सिद्ध हैं, वही ब्रह्म । मपि शीघ्रगमपाणि च शर्वग्रहमचक्षुरपि सर्व दृष्ट अश्रो. "यावदुक्तोपपन्न इति नैयायिका" नैयायिक मतसे जो नमपि सर्वश्रोतृ अचिन्त्यमपि सर्वज्ञ सर्वनियन्तृ सर्व- शक्ति सर्वेषां सृष्टिस्थितिलयकर्तृ किमपि वस्तु ब्रह्मति युक्ति द्वारा उत्पन्न होता है वही ब्रह्म है। "विश्व- कर्मेति शिल्पिनः ।" शिल्पियोंका कहना है कि विश्व. बेदा वदन्ति ।" सत्यस्वरूप, आनन्दमय, मनके अगोचर, मर्वग, कर्मा ही ब्रह्म हैं। सर्वातीत, चिदेकरम, देश और काल द्वारा अपरिच्छिन्न कुसुमाञ्जलिवृत्तिमें विभिन्नवादियोंके मत उल्लिखित अपाद होने पर भी शीघ्रगामो, अपाणि होने पर भी प्रकारसे प्रदर्शित किये गये हैं। पञ्चदशीमें महापाक्य- विवेके प्रकरण में ब्रह्मका लक्षण लिखा है, जो इस सर्वग्राहक, अचक्षु हो कर भी सवोंका द्रष्टा, अकणे हो कर भी सर्वश्रोता, अचिन्त्य होने पर भी सर्वज्ञ, प्रकार है :- "यनेनते शृयोतीदं जिघति घ्याकरोति च । सबका नियन्ता, सर्वशक्तिमान और समस्त सृष्टिक स्थिति एवं लयकर्ता, ऐमी जो काई एक अनिर्वचनीय स्वाद्वस्वादू विजानाति तत्प्रज्ञानमुदीरितम् ॥ चतुर्मुखेन्द्रदेवषु मनुष्याश्वगवादिषु । वस्तु है, वही ब्रह्म है। वेदने ही ब्रह्मका ऐसा लक्षण निर्दिष्ट किया है। चैतन्यमेकं ब्रह्मातः प्रज्ञानं ब्रह्म मय्यपि ॥ "शुद्धबुद्धस्वभाव इत्योपनिषदाः उपनिषदके मतसं शुद्ध परिपूर्णः परात्मास्मिन् देहे विद्याधिकारिणि । बुद्ध स्वभाव हो ब्रह्म है। "आदिविद्वान् सिद्ध इति कापि बुद्ध सान्तितया स्थित्वा स्फुरत्नहमितीर्यते ॥ लाः” कापिल लागोंने आदि विद्वान और सिद्ध पुरुषको ही स्थतः पूर्णः परात्मात्र ब्रह्मशब्देन वर्णितः । ब्रह्म कहा है। पातालमें ब्रह्मका लक्षण इस प्रकार कहा गया अस्मित्यैक्यपरामर्शस्तेन ब्रह्म भवाम्यहम् ।। हैं:- "क्लेशकमविपाकाशयैरपरामपौ निर्माणकायमधिष्ठाय एकमेवाद्वितीयं सत् नामरूपविवर्जितम् । सम्प्रदायप्रद्योतकोऽनुग्राहकश्चेति पातजलाः।" लेश, सृष्टेः पुराधुनाप्यस्य तादृक्त्वं तदितीर्यते ॥ कर्मविपाक और आशय द्वारा अपरामुष्ट और निर्वाण- श्रोतुर्देहेन्द्रियातीतं वस्त्वत्र त्वंपदेरितम् । काय अवलम्बन करके जो सम्प्रदाय प्रद्योतक और अनु- एकता गृह्यतेऽसीति तदैक्यमनुभूयताम् ।। हि हो, वही ह्म है। स्वप्रकाशपरोक्षत्वमयमित्युक्तितो मतम् ।