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ब्रह्म
(न विद्यते।
हृदयाकाशमें हो ब्रह्म प्रकाशित होते हैं । चिन्मय, पुरुष, द्वितीय और तृतीय रूप व्यक्त और अव्यक्त, तथा
माकाश-वत् स्वच्छ है । ब्रह्म सर्वत्र विद्यमान हैं। चतुर्थ रूप काल है। विभागानुसार प्रधानादि-रूप
यह अगत् ब्रह्ममें प्रतिष्ठित हैं। ब्रह्म-विज्ञान होनेसे सभी सृष्टि स्थिति और प्रलयके उद्भव और प्रकाशके
कुछ जाना जा सकता है।
"यल्लाभानापरी लाभः यत्मग्वान्नापरं मुखम् ।
प्रलयकालमें दिन, रात्रि, आकाश, भूमि, अन्धकार,
यज्ज्ञात्वा नापरं ज्ञानं तद्ब्रह्मत्यवधारयेत् ।।
आलोक आदि कुछ भी न था। उस समय केवल प्रधान
यद् दृष्ट बा नापरं दृश्यं यद्भ त्वा न पुनर्भरः । और पुरुष मात्र थे। पश्चात् सृष्टिके समय ब्रह्म इच्छा-
यज्ज्ञात्वा नापरं शेयं तद्ब्रह्मेत्यवधारयेत् ॥ नुसार परिणामी और अपरिणामी प्रकृति और पुरुषों
तिर्यगूळमधःपूर्ण सच्चिदानन्दमदषयम् । प्रविष्ट हो कर उन्हें शोभित अर्थात् सृष्टि करनेमें उन्मुख
भनन्तं नित्यमेकं यत्तद् ब्रह्मेत्यवधारयेत् ॥" करते हैं। परन्तु उनकी कोई क्रियावत्ता नहीं है । जैसे
(आत्मबोध ) गन्धके निकटवती होते ही मनमें चाञ्चल्य उत्पन्न होता
जिस लाभसे अधिक लाभ और नहीं है, जो सुख है, उसी प्रकार ब्रह्मका यह क्षोभ भी है। पीछे पुनः
श्रेष्ठ सुख है, जिस शानसे अधिक ज्ञान और नहीं है, काल प्रभाषसे प्रलय होता है। (विष्णुपु० १॥२ अ.)
वही ब्रह्म है। जिसके देखनेसे और कोई भी दृश्य देखने "ब्रह्म वेदं जगत्सर्व ब्रह्मणोऽन्यत् न विद्यते।
को बाकी नहीं रहता, जिसके होनेसे फिर जन्म नहीं ब्रह्मान्यत् भाति चेन्मिथ्या यथा मरु मरीचिका ॥"
होता, जिसके जाननेसे फिर कुछ भी जानना वाको नहीं
(आत्मबोध)
रहता, वहो ब्रह्म हैं। जो पूर्ण :, मचिदानन्द हैं, अद्वय यह समस्त जगत् ही ब्रह्म हैं, ब्रह्मके सिवा और सब
हैं नित्य और एक हैं, वे ही ब्रह्म हैं।
| मरु मरीचिकाकी तरह मिथ्या है। भागवतके एक
ब्रहम सगुण और निर्गुणके भेदसे दो प्रकारके हैं। श्लोक में ही ब्रह्मके सम्पूर्ण लक्षण लिखे हैं।
सचिदानन्दस्वरूप ब्रहम हो निगुण हैं, जगत्-सृष्टि आदि "जन्माद्यस्य यताऽन्वयादितरतवार्थेस्वभिज्ञः स्वराट् ।
करनेवाले ब्रहम सगुण हैं।
तेने ब्रह्म हृदा य आदिकवये मुह्यन्ति यत्सूरयः ।।
"ब्रह्मक मूर्ति भेदैस्त गुणभेदेन सम्मतम् ।
तोजोवारिमृदा यथा विनिमयो यत्र विसर्गो मृषा ।
तद् ब्रह्म द्विविधं वस्तु, सगुणां निर्गुयां शिवं ।।
धाम्ना वन सदा निरस्तकुहकं सत्यं परं धीमहि ॥"
मायाश्रितो यः सगुणो मायातीतच निर्गुणः।
(भागवत १।१।१)
म्वेच्छामयश्च भगवानिच्छया विकराति च ॥” इत्यादि ।
जिनसे इस परिदृश्यमान जगत में जन्म, स्थिति और
(ब्रह्मवैवर्त पु० जन्मखं० ४२ अ०) लय हो रहा है, जिनके सृष्ट वस्तुमात्रमें ही सद्र पमें विद्य-
एक ब्रह्म गुण भेदसे दो प्रकार है, सगुण और निर्गुण मान रहनेसे हो उनको सत्ता है, और आकाश कुसुम
मायाधित ग्रह म सगुण और मायातीत ब्रहम आदि अवस्तुओंसे जिनका कोई सम्बन्ध न होनेसे ही
निर्गुण है। स्वच्छामय भगवान् इच्छाशक्ति द्वारा इन उनको असता मानी जाती है, जो सर्वश-रूपमें स्वयं
सोंकी सृष्टि करते हैं।
ही विराजमान हैं, जिनमें पण्डितगण भी विमोहित होते
विष्णुपुराणमें ब्रह्म सम्बन्धमें इस प्रकार लिखा है हैं ऐसे वेदोंको जिन्होंने आदिकवि ब्रह्माके हृदयमें मन
जो परात्पर और श्रेष्ठ हैं, आत्मस स्थित और रूपवर्णादि द्वारा प्रकाशित किया था और तेज, जल एवं कांच
रहित है, क्षय और विनाश परिणाम है, वृद्धि और जन्म- इन तीनोंके परस्पर ध्यतिक्रमसे अर्थात तेजमें जलका हान
वर्जित हैं, जो सर्वन विद्यमान हैं, अक्षण और अव्यय है, कांच आदिमें जलको बुद्धि इत्यादि भ्रम अधिष्ठानकी
वे ही ब्रहम हैं। उनके चार रूप हैं, व्यक्त ( महदादि ), सत्यतासे जैसे सत्य मालूम होते हैं, उसी प्रकार जिनको
भव्यक (माया), पुरुष और काल। इनमें प्रथमरूप सत्यताके हेतु सत्व, रजः और तम इन गुणत्रयकी सुछि
पृष्ठ:हिन्दी विश्वकोष पंचदश भाग.djvu/५८८
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