पृष्ठ:हिन्दी विश्वकोष पंचदश भाग.djvu/५९०

विकिस्रोत से
यह पृष्ठ अभी शोधित नहीं है।

५८४ ब्रह्म कालिकापुराणमें लिखा है - पूर्व में जब कि सृष्टि नहीं का उदय हुआ । ब्रह्माके ऊपर सृष्टि-शक्ति निहित होनेसे थी, तब सब-कुछ सुप्तको भांति तमोगुणके दुभंध आव- वे ही स्रष्टा हुए। कालिकापुराण अ०१२।१४ देखो। रणसे आवृत, अलक्षा और अपरिहात था। उस समय श्रीमद्भागवतमें लिखा है,- दिन रात, पृथिवो, ज्योति, आकाश, वायु और जल आदि "जगृहे पौरुषं रूपं भगवान् महदादिभिः। - कुछ भी नहीं थे, उस समय केवलमात्र सूक्ष्म, नित्य, सम्भूतं घोड़शकलमादी लोकसिसक्षया ।। अतीन्द्रिय, अव्यक्त, अद्वय, ज्ञानमय एक परम ब्रह्म हो थे यस्याम्भसि शयानस्य यागनिद्रा वितन्वतः। और सर्वगत, सनातन, प्रकृति पुरुष तथा अखण्ड काल नाभिहदाम्बुजादासीद्ब्रह्मा विश्वसृजाम्पतिः॥" इत्यादि । विद्यमान था। वे ही परम ब्रह्म ब्रह्मा, विष्णु और मह- (भाग० १२३३१-२) श्वर इस प्रकार तीन रूपमें विभक्त हुए हैं। भगवान् विष्णुने सृष्टि करनेकी मनशासे प्रथमतः परमब्रह्मने सृष्टि करनेके अभिप्रायसे पहले प्रकृतिको । महत्तत्व, अहङ्कारतत्त्व और पञ्चतन्मात्र द्वारा षोड़श- विक्षोभित किया। प्रकृतिके विक्षुब्ध होने पर महत्तत्व- कला-युक्त पौरुषरूप अर्थात् ग्यारह इन्द्रिय और पञ्चमहा- से विविध अहङ्कार और अहङ्कारसे पञ्च तन्मात्रकी, भूत इन सोलह अंशोसे विशिष्ट विराट मूर्ति धारण को उत्पत्ति हुई। पश्चात् शव्दतन्मात्रसे मूत्तिहोन अनन्त ! थी! पहले योगनिदा विस्तार-पूर्वक एकाण व शयन आकाश और रसतम्मानसे जलकी सृष्टि कर ब्रह्माने अपने करने पर उनके नाभि स्वरूप ह्रदस्थ अम्बुजसे विश्वस्रष्ट- मायाबलसे उस जलराशिको धारण किया। उसके बाद गणके पति ब्रह्मा उत्पन्न हुए। उन्होंको उस विराट उन्होंने गुणत्रय-स्वरूपमें अवस्थित प्रकृतिको सृष्टिके मृत्तिके अवयव-संस्थानों द्वारा भूलोकादि समस्त लिए विक्षोभित किया । फिर प्रकृतिने उस कारण- , कल्पित हुए हैं। जलमें त्रिगुणनय जगद्वोप स्थापित किया। वही बोज : "सत्त्वं रजस्तमइति प्रकृतेर्गुणास्तै. क्रमशः वृद्धिको प्राप्त होता हुआ सुविशाल सुवर्णमय युक्तः परः पुरुष एक इहास्य धत्ते । अण्डाकारमें परिणत हुआ और इस तरह जलराशि भी स्थित्यादये हरिविरिञ्चिहरेतिसंज्ञाः । उसोमें लीन हो गई। स्वयं ब्रह्माने ब्रह्मस्वरूपमें उस श्रेयांसि तत्र खलु सत्त्वतनोनृणां स्युः॥" अएडमें एक हैववर्ष वास करके उसका भेदन किया। ____(भाग० १।२।२३) अनन्तर उसमें जरायु-रूप सुमेरु और अन्यान्य पवंतोंके अभ्यन्तरस्थ जर.राशिसे सप्तसमुद्र तथा त्रिगुणमयो ____एक परम पुरुषने हो प्रकृतिके सत्व, रज और तम पृथिवो उत्पन्न हुई। फिर ब्रह्माने प्रकृति के इच्छानुसार , - इन तीन गुणोंसे युक्त हो कर विश्व संसारको सृष्टि, स्थिति और लयके लिए ब्रह्मा, विष्णु और महेश्वररूपमें अपने शरीरको तीन भागोंमें विभक्त किया। उसो अखण्ड शरीरका ऊद्ध वभाग चतुर्मुख, चतुर्भुज, कमल- विभिन्न संझा पाई हैं। वे ब्रह्माके रूपमें जगत्की सृ.छ, निष्णुरूपमें पालन और रुद्र के रूपमें संहार केशरसन्निभ आरक्तवर्ण विरिश्चिशरीरमें परिणत हुआ। ' करते हैं। उनके मध्यभागमें विष्णु और अधोभागमे शिवरूप हैं, , अर्थात् एकाधारमें ब्रह्मा, विष्णु और महेश्वररूप विशक्ति : ब्रह्मा, विष्णु और महेश ये तोनों ही परब्रह्मके मंश हैं। तोनों एक हैं। प्रभेद केवल इतना ही है कि, जो तस्मिन्नपडे स भगवानुषित्वा परिवत्सरम् । सृष्टि करते हैं, वे ही ब्रह्माके नामसे पुकारे जाते हैं । स्वयमेवात्मना ध्यानात्तदण्डमकरोद्विधा ।। "भृगु पुलस्तं पुलह ऋतुमङ्गिरसन्सथा । ताभ्यां सशकलाभ्याञ्च दिवं भूमिश्च निर्ममे । मरीचि दक्षमत्रिञ्च पशिष्ठञ्चैव मानसम् । मध्ये व्योम दिशश्चाष्टावा स्थानञ्च शाश्वतम् ॥" नव ब्राहमण इत्येते पुराणे निश्चयं गताः ॥" (मनु० २८-१३) (मार्कापडेयपु०)