पृष्ठ:हिन्दी विश्वकोष पंचदश भाग.djvu/५९२

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५९६ ब्रह्मकन्यका -ब्रह्मकर्ष सकते हैं। इस योगमें यदि बालकका जन्म हो, तो वह ब्रह्मकार ( सं. नि. ) अन्नकर्ता। नाना शास्त्रों में पण्डित, धर्मश, चारकीर्तित, शमदमगुणा- ब्रह्मकाष्ठ (सं० क्लो०) तूलकाष्ठ, शहतूत । न्वित और कार्यकुशल होता है। ब्रह्मकिल्विष (सं० क्लो०) वह पाप जो ब्राह्मणके विरुद्ध "नानाशास्त्राभ्याससन्नीतकालो वर्णाचारैः संयुतश्चारुकीर्तितः।। कारीको लगता है। शान्ता दान्तो जायते चारुकर्मा सुतौ यस्य ब्रह्मयोग प्रयोगः ।" ब्रह्मकुण्ड (सं० क्लो०) ब्रह्मणा निर्मित कुण्ड सरोघरम् । ब्रह्म (कोष्ठीप्रदीप) कर्तृक निर्मित कामरूपस्थ सरोवर ।कालिका पुराणमें लिख ब्रह्मकन्यका ( सं० स्त्री० ) ब्रह्मणः कन्याका सुता । १ सर- है, कि पाण्डुनाथके उत्तर ब्रह्मकुण्ड नामका एक सरोवर स्वती। २ भारंगी नामकी बूटी जो दवाके काममें आती है। वह सरोवर ब्रह्माने स्वर्गवासियोंके स्नान के लिये है, ब्राह्मी बूटि। बनाया है। इसकी लम्बाई सौ व्याम और चौड़ाई उसका ब्रह्मकर (सं० पु० ) वह धन जो ब्राह्मण या गुरु पुरोहितको आधा है । यह सर्वपापहर, पविल और देवलोकसे आगत दिया जाय। है। इस सरोवरमें निम्नोक्त मन्त्रका पाठ करके स्नान ब्रह्मकर्म (सं० क्लो०) ब्रह्म विहितं कर्म । १ वेदविहित कर्म । करना होता है- २ ईश्वरार्पित कर्मफल । ३ ब्राह्मणका कर्म । “कमण्डलुसमुद्र त ब्र मकुण्डामृतस्रव । ब्रह्मकर्मप्रकाशक (सं० पु०) गोपालका नामान्तर, श्रीकृष्ण । हर मे सब पापानि पुण्यं स्वर्गश्च साधय ॥" ब्रह्मकर्मसमाधि (सं० पु० ) ब्रह्मण्येव कर्मात्मक समाधि ।। इस मन्त्रसे स्नान कर ब्रह्मकूट पर्वत पर चढ़ने और श्चितै आम यस्य वा ब्रह्मणि कर्मणां समाधिः। सब उमापतिकी पूजा करनेसे मुक्तिलाभ होता है। कर्मों के कर्ता द्यङ्गजातका ब्रह्मरूपमें चिन्तन । (कालिकापु० ८१ अ०) "ब्रह्मार्पणे ब्रह्महविग्रह माग्नौ ब्रहमणा हुतम् । ब्रह्मकुशा ( स० स्त्रो० ) अजमोदा। ब्रहमैव तेन गन्तब्य ब्रहम कर्म समाधिना ॥” (ग.ता ४।२८) ब्रह्मकूट (स० पु०) ब्रह्मा कूटे शिखरे यस्य । पर्वतविशेष । जनके शानका विकाश होता है, वे ब्रह्म ध्यतीत और ! "बह मकटे जले स्नात्वा पूजयित्वा उमापतिं । कुछ भी नहीं देखने पानं। उनके निकट यह जगत् एक ब्रह मकुटं समारुह्य मुक्तिमेवाप्नुयान्नरः॥" ब्रह्ममय समझा जाता है । जिस प्रक्रिया द्वारा होम ! (कालिकापु० ८१ अ०) करना होता है, उसे वे देख नहीं सकते, केवल वे ब्रह्म । ब्रह्मकूर्च ( स० क्ली० ) ब्रह्मणो ब्राह्मणत्वस्य कूर्चमिव । सत्ताका हो अनुभव करते हैं। ब्रह्मा और आत्माके . १ व्रतविशेष । रजस्वलाके स्पर्श या इसी प्रकारकी और एकत्वदर्शी योगिगण ब्रह्माग्निमें ही आपको आहुति देते अशुद्धि दूर करनेके लिये यह व्रत किया जाता है। इसमें हैं, अर्थात् परब्रह्ममें समाधि करके जीवात्माका लय एक दिन निराहार रह कर दूसरे दिन पञ्चगव्य पिया करते हैं। जाता है। ब्रह्मकला (सं० स्त्री०) दाक्षायणी । ये मानवमात्रके 'अहोरात्रोषिता भूत्वा पौर्णमास्यां विशेषतः । हृदयमें विद्यमान हैं, इस कारण उनका यह नाम ___पञ्चगव्य पिवेत् प्रातब्र ह्याकूर्चविधिः स्मृतः ॥' पड़ा है। (प्रायश्चित्ततस्व) ब्रह्मकल्प (सं० लि.) १ ब्रह्मसद्श । २ ब्रह्मका स्थिति ब्रह्मपुराणमें लिखा है,---चतुर्दशी, अमावस्या वा काल, उतना समय जितनेमें एक ब्रह्मा रहते हैं। पूर्णिमा तिथिमें पञ्चगव्य वा हविष्यान्न भोजन करनेसे ब्रह्मकाण्ड (सं० पु० ) वेदका एक भाग। इसमें ब्रह्माको यह व्रत होता है। पौर्णमासीमें यह व्रत करनेसे समस्त मीमांसा की गई है और यह कर्मकाण्डसे भिन्न है। पाप दूर होते हैं । जो प्रति मास दो बार करके यह ब्रह्मकाय (सं० पु०) देवताविशेष । व्रत करते हैं, घे उत्तम गति प्राप्त करते हैं। इसे पश्चगव्य ब्रह्मकायिक (सं० वि० ) ब्रह्मकाय नामक देव सम्बन्धोय।। पानरूपवत भी कहते हैं। २ कुशोदक सहित पञ्चगव्य ।