पृष्ठ:हिन्दी विश्वकोष पंचदश भाग.djvu/५९८

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ब्रह्मज्ञान ब्रह्मज्ञान (स' क्लो०) ब्रह्मणि ब्रह्मविषये यजमानं। १ ब्रह्म। सिवा और कुछ नहीं है। ऐसी प्रतीति सुदढ़ होना विषयक ज्ञान, तत्त्वमसि आदि वाक्य जन्य प्रतिफलित- चाहिए, और प्रतीतिके सुगढ़ वा अविचलित होते ही वृत्तारूढ़ शान। ( वेदान्तलघुचन्द्रिका ) २ मिथ्यावासना जीव अपने ब्रह्मत्वका साक्षात्कार कर कृतार्थ हो सकता विरह-विशिष्ट आरमभिन्न भिन्नज्ञान । ( मुक्तिवाद ) ३ है। शकिमान गुरु जिस समय विवेकी और भुत्सु क्शकर्मविपाकाशयनिवर्तक हिरण्यगर्भ विषयक शान : शिष्यको 'तत्त्वमसि' 'सवं खल्विदं ब्रह्म' इत्यादि महा- ४ प्रकृति-पुरुषके विवेक विषयक ज्ञान। (सांग्त्र्यद०) ५ वाक्योंका उपदेश करते हैं, उस समय उनके द्वारा उक्त आत्मज्ञान, स्वानुभूति, अपने आत्माका यथार्थ अनुभव, वाक्यकी सामर्थ्य से पूर्वोक्त प्रकार प्रतीति अर्थात् विश्वका केवलज्ञान । (जैनदर्शन) मिथ्यात्व और अपने में ब्रह्मत्वबोध उपस्थित होता है। ब्रह्मज्ञानका विषय वेदान्तमें इस प्रकार है, ---अपने अनन्तर वही ज्ञान साधनके बलसे अपरोक्ष-पथमें प्रविष्ट ब्रह्मभावका अपरोक्षशानमें आरूढ़ होना हो ब्रह्मज्ञान है। हो कर जीवको कृतार्थ कर देता है। जैसे मरु-मरोचिकामें जलको भ्रान्ति है, वैसे हो ब्रह्ममें श्रवणादिके बाद दो प्रकारसे वाक्य बोध होते देखा दृश्य भान्ति है। सुतरां दृश्य-प्रपञ्च मिथ्या है, ब्रह्म ही जाता है, एक परोक्षरूपसे और दूसरे अपरोक्षरूपसे। सत्य है। पहले इस ज्ञानको अजन और दृढ़ करना। वाकप्रकाश्य वस्तु श्रोताके समक्षमें (प्रत्यक्ष मार्गमें ) चाहिए। अनन्तर 'मैं हो यह ज्ञान है और उसका होनेसे तरोधक वाक्य तस्तु विषयमें अपरोक्ष ज्ञान आधार यह देह है, इन्द्रिय और मन सभी कुछ भ्रान्ति उत्पन्न करता है और असमक्षमें होनेसे परोक्षशान विशेषका विलास है और कुछ नहीं", सुतरां "मैं ज्ञान करता है। हूँ और मैं शानका आधार है।" यह सब ब्रह्ममें रज्जु-सर्प- 'तत्वमसि' आदि महावाक्य हो शिष्योंकी मनुष्य- को तरह मिथ्या है, ऐसा ज्ञान जब अविचल हो जाता है, भ्रान्तिको दर कर ब्रह्मका साक्षात्कार करते रहते हैं। तब अपने आप 'अह' अर्थात् 'मैं' जो ज्ञान है, वह इन्द्रिय कारण, ब्रह्म ही स्वाश्रित अनादि अनिर्वाच्य अज्ञानसे 'मैं और मन सबको त्याग कर ब्रह्ममें जा कर अवगाह किया. अमुक हूं' इस सद्वय भाव वा परिच्छेद-भ्रान्तिप्राप्त और करता है। 'अह' शान ब्रह्मावगाही होनेसे ही ब्रह्मशान जीव हो कर मौजूद हैं। सुतरां अद्रय ब्रह्मबोधक तत्व होता है। इसको तत्वज्ञान वा आत्मज्ञान भी कहा : मसि आदि महावाक्य हो अपनो उस स्वात्मभ्रान्तिको जा सकता है। दूर कर ब्रह्मस्वरूपका साक्षात्कार करानेमें समर्थ है। ___ एक ही चैतन्य हममें और अन्यान्य जीवोंमें विराज- उपदेशात्मक तत्त्वमसि आदि महावाक्य जिज्ञासु शिष्यके मान है। वही एक अखण्ड चैतन्य ही ब्रह्म है और वहो मनमें ब्रह्माकारावृत्ति उदित करती है । उसके द्वारा अनादि अनन्त ब्रह्मचैतन्य उपाधिभेदसे अर्थात् आधार क्रमसे उसको 'मैं अमुक है' यह भ्रान्तिवृत्ति विदूरित ( देहादि )-भेदसे विभिन्नभाव-प्राप्तके सदृश हो जाता। वा निवृत्त होती है ; उस समय उसके वह चिरसिद्ध है। वस्तुतः वह अभिन्नके अतिरिक्त विभिन्न नहीं है। अद्वय भाव अर्थात् ब्रह्मभाव स्थिर होता है। यह भव्य उपाधिके दूर होते ही एक है, अन्यथा बहुत । स्वर्ग, ब्रह्मभाव हो ब्रह्मज्ञान है। मत्य, पाता, यह लोकत्रय ब्रह्मचैतन्यमें अवभासित है यद्यपि आलोक और अन्धकारकी तरह मान और अथवा मायिकरूपमें दीख पड़ता है। क्योंकि, जिस प्रकार अज्ञान अर्थात् चैतन्य और अचैतन्य परस्पर विरोधो एकाहय महान् व्यापिचैतन्यमें स्वाश्रित अज्ञानके प्रभावसे पदार्थ हैं, तथापि उनके अभिभाष्य-अभिभावकभाव अप्र- विश्वरूप इन्द्रजाल प्रकट होता है, उसी प्रकार विश्व त्याख्येय हैं। इसका तात्पर्य यह हैं, कि विरोधो पदार्थ- मिथ्या है। केवल प्रकाशक चैतन्य ही सत्य है और का सहावस्थान नहीं होता। जैसे आलोक और अन्ध- तो क्या, सत्य चैतन्यमें जो जो भासमान हैं, वे भी कार एक साथ नहीं रह सकते, वैसे ही शान और असत्य हैं। ये सब चैतन्याश्रित अमानके विलासके . अहान कभी भी एक साथ नहीं रह सकते। यह देखते