पृष्ठ:हिन्दी विश्वकोष पंचदश भाग.djvu/५९९

विकिस्रोत से
यह पृष्ठ अभी शोधित नहीं है।

ब्रह्मज्ञान हुए ब्रह्ममें अज्ञानका आवेश मानना अन्याय है। कारण, देखा है। इसीलिए जगत् और ब्रह्म अब विमिश्रित वा शान और अज्ञान एकत्र रह ही नहीं सकते, यह एक मालूम पड़ता है। यही कारण है, कि प्रत्येक दृश्य नियम है। हो पश्चरूपी दिखाई देता है । जैसे, १ अस्ति-है, • निपुण हो कर अनुसन्धान करनेसे मालूम होता है। २ भाति -भासता वा प्रकाशित होता है, ३ प्रिय- कि चेतनकी पार्श्वचर शक्ति अज्ञान है और उसकी सत्ता अच्छा लगता है, ४ रूप---यह इस प्रकार, है, ५ नाम- चैतन्य-सत्ताके अधीन है। ये दोनों परस्पर प्रतियोगी | यह अमुक वस्तु है । इस प्रकार पञ्चरूपमें प्रथमोक्त हो कर भी परस्परके स्वरूपके बोधक हैं। अन्धकारकी तीन प्रकार ब्रह्म और अवशिष्ट दो प्रकार जगत् अर्थात् सत्ता न रहनेसे किसकी सामर्थ्य है, कि आलोकको सिद्ध अज्ञान-विकार है। अज्ञान-विकार या जगत् परमार्थतः कर सके ? जड़ न रहनेसे और अज्ञानका अभाव होनेसे सत्य नहीं है, इसलिए कहा जाता है, कि जगत् मिथ्या कौन चेतन और ज्ञानकी सत्ता पर विश्वास ला सकता! और ब्रह्म सत्य है। है ? वस्तुतः प्रत्येक आलोक और प्रत्येक चेतनके अधीन ____ अज्ञानके समय अर्थात् संसार-दशामें 'अह' मैं, यह अन्धकार और अज्ञानका अवस्था न देखा जाता है। वृत्ति अस्थिर वा अनिश्चतरूपसे उदित रहती है। कौनसे चेतनका अज्ञानसे संत्रव नहीं है ? सम्पूर्ण चेतन संसार-कालका अहंज्ञान एकाकार नहीं है इसीलिए वह जीवोंमें अज्ञानका संस्रव देख कर निश्चय किया जा अप्रमा अर्थात् मिथ्या है। विनारना चाहिए, कि सकता है, कि अज्ञान चेतनकी पार्श्वचर शक्ति है । छाया अज्ञान कालका अहं कभी मन, कभी इन्द्रिय और कभी जैसे आलोककी पार्श्वचर है, वैसे ही अज्ञान भी शानका शरीरका आधार बना कर अवस्थान करता है। पूर्ण पार्श्वचर है। ये दोनों ही शक्तियां कोई एक अनिर्वाच्य चैतन्यकी ओर अग्रसर नहीं होता। सुतरां संसार- सम्बन्धसे कभी दूरमें कभी निकटमें, कभी प्रकाश्यरूपमें कालका अहज्ञान अस्थिरता-युक्त और सन्धिग्धकी तरह और कभी अप्रकटरूपमें आलोक और ज्ञानके साथ देखी अप्रमा अर्थात् मिथ्या है। जननीके समान हिताभि- वा सुनो जाती हैं। सुविधा यह है, कि परस्पर विरुद्ध | लाषिणी श्रुति तत्त्वमसि आदि महावाक्यके उपदेश द्वारा स्वभावान्वित हैं, साक्षात् सम्बन्धमें देखी नहीं जा उस अप्रमा वा भ्रान्तिको दूर करने में प्रवृत्त है। श्रवण सकती। जैसे अन्धकारके समय आलोकका नाश हो करनेमें असफल होनेसे मनन करना चाहिए और मनन- जाता है, उसी प्रकार अज्ञानके समय ज्ञानका और ज्ञान में भी सफलता न होनेसे निदिध्यासन अवलम्बन के समय अज्ञानका तिरोभाव हो जाता है। ज्ञान होते! करना उचित है। ही अज्ञान भाग जायगा, यह स्थिर होनेसे ही हम अज्ञान श्रवण, मनन और निदिध्यासनमें अधिकार-प्राप्ति के निवारणार्थ प्रयत्न करते हैं। अज्ञानसे हो संसार है, और बुद्धिकी दुर्बलता निवारणके लिए पहले चित्तपरि- संसार और कुछ भी नहीं है। अखण्ड चेतन अद्वय ब्रह्म कर्मकारक उपसना आवश्यक है । शम, दम, उपरति, की पार्श्वचर शक्ति अज्ञान है, उसके प्रादुर्भावमें अन्तः । श्रद्धा, समाधान आदि वेदोक्त अनुष्ठानमें रत रहनेसे करणादिकी उत्पत्ति है, अनन्तर वे अन्तःकरणादि परि चित्त निर्मल होता है। तभी श्रवणादि कार्यमें अधिकार च्छिन्न जीव हैं, और उसीके तिरोभावसे अपरिच्छन्न उत्पन्न होता है। मनन निदिध्यासनके प्रभावसे प्रति- और निरञ्जन होते हैं। क्या अन्तःप्रपञ्च और क्या वाह्य बन्धक अभाव प्राप्त होता है । प्रतिबन्धक अभाव-प्राप्त प्रपञ्च, सभी कुछ अज्ञानका विलास है, इसीलिए इन होते ही श्रवणका फल ब्रह्मज्ञान ('अहं ब्रह्म' इत्याकार सबको भ्रान्तिका विजृम्भण कहा गया है। अनुभाव) अपनेसे हो उपन्न हो जाता है। इस प्रकार "अस्ति भाति प्रिय रूपं नाम चेत्यर्थपञ्चकम् । ब्रह्मज्ञान होते ही मुक्ति वा मोक्ष प्राप्त होता है। महा- आद्यत्रयं बूमरूपं जगद्रूपं ततो द्वयम् ॥" नान्धजीव मायामें मोहित हो कर सर्वदा सुखके लिये शक्तिरूपी ब्रह्माश्रित अक्षानने ब्रह्म वा ब्रह्मका जगत् दुःख भोग रहा है। जीवके अज्ञानको नष्ट करनेके Vol. XV. 149