पृष्ठ:हिन्दी विश्वकोष पंचदश भाग.djvu/६१३

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ब्रह्मदेश दीक्षित होने पर भी उनको पूर्वानुष्ठित भृतोपासनाका | सब करेनोंने ब्रह्मराजके शासनमें आ कर उनके आचार प्रभाव ज्योंका त्यों बना रहा । अब भी फरेन, चीन व्यवहारका अभ्यास तथा अनुकरण किया है, उनको आदि पार्वतीय जातिमें नाटपूजाका बहुत प्रचार देखा रीतिनोति प्रायः ब्रह्मोको जैसी है। किन्तु पातीय जाता है। सम्प्रति करेनगण अपनेको बौद्ध बतलाते हैं। केरनका आचार विचार पूर्वका-सा बना है। बौद्धधर्मावलम्बी ब्रह्मोंके मध्य बाल-विवाह प्रचलित करेनमें बहुविवाह प्रचलित नहीं हैं। किन्तु जो ब्रह्म- नहीं है। कन्या सव प्रकारसे मातापिताके अधीन संसर्गसे वौद्धधर्मावलम्बी हुए हैं, उनमें शायद ही एकसे रहती है। यदि कोई युवक रूप पर मुग्ध हो कर किसी अधिक विवाह देखा जाता है। व्यभिचार दोपसे दूषित युवतीके साथ विवाह करना चाहे; तो पहले उसे उम होने पर पत्नीका त्याग करना पड़ता है--सतीत्वरक्षा ही कन्याके पिताकी अनुमति लेनी पड़ती है और सुपात्र इस जातिको रमणोका प्रधान कर्तव्य है। चीनके मध्य देख कर पिता भी उस युवकको अपनी कन्याके साथ बहुविवाह चलना है। सारे ब्रह्मसाम्राज्यमें सैकड़ों मठ प्रीतिसाहचर्य (Curtship) करनेका आदेश देते हैं। नजर आते हैं जिनकी देखभाल पुङ्गिगण करते हैं। धर्म- इस पारस्परिक प्रेमके समय दोनोंमें विशेष कटाक्ष चर्याके सिवा इनका और दूसरा काम नहीं है। ये धर्मा- चलता है। कन्याकी माता ही साधारणतः विवाहको ध्यक्षगण अपने अपने मठ (क्यौङ्ग) में रह कर प्रामीण घटक हो कर उसके अभिमतानुसार उपयुक्त पात्र बालकोंको शिक्षा देते हैं। शिक्षाकाल तक बौद्धवालकों- चुनतो और कायमनो वाक्यसे उक्त दम्पतिके मध्य ' को मठमें हो रहना पड़ता है। वहां ग्रन्थादि पढ़ना और सुप्रणय संस्थापन करनेकी चेष्टा करती है ! पिताको लिखना तथा शाक्यबुद्धप्रवर्तित धर्ममतका अनुशीलन अनुमति होने पर भी विवाहमें कन्याकी सम्मति आव- . करना ही उनका प्रधान कर्तव्य है। पिताकी दरिद्रताके श्यक है, नहीं तो विवाहमें अकसर गोलमाल होता है। कारण बालकगण यथाविहित हरिद्रा वस्त्रपरिधान और बौद्धधर्ममें बहुविवाह निषिद्ध नहीं होने पर भी, संस्कारादिसे सम्पन्न तो नहीं हो सकते, पर सभी ग्रह्मबासी साधारणतः एक स्त्रीको छोड़ कर दूसरी प्रहण शिक्षार्थी हो कर कौङ्गथा ( मठवालक ) नामको सार्थक नहीं करते। धनवान् वणिक और राजकीय कर्मचारियों- : बनाते हैं। बालकोंके मठमें जाना सख्त मुमानियत है। का एकसे अधिक पत्नी ग्रहण करना समाजमें विशेष | शहर और बड़े बड़े गांवके विद्यालयमें बालक तथा निन्दनीय है। दूसरी पत्नी ग्रहण करनेसे पहलीको स्वतन्त्र बालिका एक माथ शिक्षा पाती हैं। स्थान देना होता है --सपत्नीको ले कर वे एक साथ उपयुक्त जातिविभागके अलावा ब्रह्मराज्यमें ब्रह्म, नहीं रहते। दम्पतिकी इच्छा होनेसे गांवके बड़े बूढ के तैलङ्ग ( मोन), थोङ्गथा, म्रो, क्वमि, शान आदि कई एक आदेशानुसार विवाहबन्धन दूर सकता है। किन्तु जब जाति और उन लोगोंके सहयोगले उत्पन्न मिश्रजाति विशेष गोलमाल रहता अथवा स्वामी या पत्नी कोई भी : भी देखने में आती हैं। आराकान प्रदेशमें औपनिवेशिक वैसा करनेमें राजो नहीं होती तब राजधर्माधिकरण ; हिन्दू और ब्रम्म जातिका वास है *। इसके सिया का विचार लेना पड़ता है । इस प्रकार स्वामी पार्वत्य प्रदेशमें सक, चब, कुन, शन्दु, ययेन, यव आदि या स्त्री परस्पर अलग होने पर भी धनाधिकारसे कई एक जातियां पाई जाती हैं जिनकी भाषामें बहुत कुछ वञ्चित नहीं होती। कहीं कहीं पर परित्यक्ता रमणी विभिन्नता भी है। या पुरुष सारी सम्पत्तिका अधिकारी हो जाता है। * अर्थर फेरीने लिखा है, कि जिस प्रकार मध्य एशियासे आर्य ___ ब्रह्ममें जहां रमणियां वाणिज्य व्यवसायलब्ध हिंदू भारतवर्ष आये, उसी प्रकार एक दूसरे जनस्रोतने हिमालयके जीविका द्वारा आनन्दसे दिन बिताती हैं, वहां विवाह पूर्व और पार कर तागौंग प्रदेशमें राज्य स्थापित किया और धीरे जीवन अत्यन्त सुखकर होता है। करेन चीन आदि धीरे वहांसे पश्चिममें आराकान और दक्षिणमें प्रोम तथा तौंगगुन पावत्य जातिकी विवाह-प्रथा स्वतन्त्र है। किन्तु जिन नगरमें राज्य फैलाया।