पृष्ठ:हिन्दी विश्वकोष पंचदश भाग.djvu/६१७

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ब्रममह-प्रमराक्षस ब्राह्ममह (सं० पु०) ब्रह्मणः महः । ब्राह्मणके उद्देशसे प्रजापति ब्रह्मा हो ब्रह्ममय यह है, घे ही प्रकृत सांख्य- उत्सव। . योग और विज्ञान हैं। वे दो चार्वाकोंका स्वभाव तथा प्रहमाण्ड को (स. स्त्री०) ब्राह्मोशाक । बहममण्डुकी देखो। सांख्योंकी प्रकृति और पुरुष हैं, वे ही स्रष्टा और संदर्ता नयमित (संपु०) ब्रह्ममित्रमस्य । मुनिभेद । हैं। वे ही कालरूपी साक्षात् ईश्वर हैं । फिर वे ही काल- ब्रह्ममीमांसा ( स० स्त्री०) ब्रह्मणः मीमांसा ६-तत् । क्षय, हेय और विज्ञान हैं अर्थात् जो जिस भावमें ग्रहण ब्रह्मानार्थ वेदान्त वाक्यविचारात्मक व्यास-प्रणीत प्रन्थ करते हैं वे हो उनके तत्वरूप हैं। यही ब्रह्मयोग है। भेद । विशेष विवरण 'वेदान्तदर्शन' शब्दमें देखो। इस ब्रह्मयोगका ज्ञान हो जानेसे सभी अज्ञान तिरोहित ब्रह्ममुहूर्त (सं० पु०) सूर्योदयके ३-४ घड़ी पहलेका होता है। ( हरिवं० २१० अ०) समय । २ विष्कुम्भादि पञ्चविंश योगके अन्तर्गत योगमेद । ३ ब्रह्ममूद्ध भृत् (स० पु०) ब्रह्मणो मूर्ख भृत् शिरोमणिरिव ।। १८ मात्राओंका एक ताल । इसमें १२ आघात और शिव। ६ खाली होते हैं। ब्रह्ममेखल (सपु०) ब्रह्मणां ब्राह्मणानां मेखला पुंवद्- ब्रह्मयोनि ( सं० पु० ) ब्रह्मणो योनिरुत्पत्तिरत। १ ब्रह्म भावः। मुअतृण, मज । गिरि । २ ब्रह्मप्राप्तिकारण ब्रह्मध्यान । ३ सवोंका उत्पत्ति ब्रह्ममेध्या ( स० स्त्री०) नदोभेद । कारण-ब्रह्म। ४ तीर्थविशेष । (त्रि०) ५ जिसका ब्राह्मयज्ञ (सं० पु०) ब्रह्मणो ब्रह्मणे वा यक्षः। विधि | उत्पत्तिकारण ब्रह्म हो। पूर्वक वेदाभ्यसन, शिष्योंका वेदाध्यापन । यह पञ्च- | ब्रह्मयोनि (सं० स्त्री०) ब्रह्मा योनिरुत्पत्तिकारण यल्या, यक्षके अन्तर्गत है। प्रतिदिन ब्रह्मरूप वेदाध्ययन करना स्त्रियां पक्षे ङोप् । कुरुक्षेत्रस्थ सरस्वतीतोरवत्ती पृथूदक- ब्राह्मण मात्रका अवश्य कर्तव्य है। के निकट अवस्थित तीर्थविशेष। यहां पर ब्रह्मा चार ब्रह्मयशस् ( स० क्लो०) ब्रह्माकी यशोराशि। वर्णोको सृष्टि करते हैं। इस तीर्थ में स्नान करनेसे मुक्ति ब्रह्मयशस ( स० क्लो०) ब्रह्माका यशोगायकसाममन्त्र- लाभ होती है। (वामनपु० ३८ अ.) विशेष । | ब्रह्मरक्षस (स० क्ली० ) अपदेवताविशेष । ब्रह्मयशस्विन् ( स० वि० ) अत्यधिक पवित्रताशाली। ब्रह्मरथ ( स० पु० ) १ ब्राह्मणका शकर वा यानविशेष। ब्रह्मयष्टि ( स० स्त्री० ) ब्रह्मणो यष्टि-रिव। १ भागी, २ ब्रह्माका बाहन, हंस। भारंगी। २ वृक्षविशेष । ब्रह्मयष्टिके फलको जलमें पीस ब्रह्मरत्न ( स० क्लो०) ब्रह्माको प्रदत्त धनरत्न । कर उसका लेप देनेसे रक्तदोष जाता रहता है। ३ ब्राह्मण ब्रह्मरन्ध्र ( स० क्लो०) ब्रह्मणः परमात्मनः अधिष्ठानाय के हस्तस्थित दण्ड। रन्ध्र आकाशः, वा ब्रह्मणे ब्रह्मप्राप्तये ध्र । उत्तमाङ्ग, ब्राह्मयाग ( स० पु० ) ब्रह्मणोयागढ़ः । ब्रह्मयज्ञ । ब्रह्मतालु, मस्तकके मध्य वह गुप्त छेद जिससे हो कर ब्रह्मयज्ञ देखो। प्राण निकलनेसे ब्रह्मलोककी प्राप्ति होती है। कहते हैं, ब्रह्मयातु (सपु०) यातुभेद । कि योगियोंके प्राण इसी रन्ध्रसे निकलते हैं। ब्राह्मयामल ( स० क्लो०) तन्त्रशास्त्रविशेष । ब्रह्मरस (संपु०) ब्रह्मज्ञानरूप उत्कृष्ट सुधा। ब्रह्मयुग (सं० क्लो०) ब्रह्मा विप्रस्तदुपलक्षितं युगं । ब्रह्मराक्षस (स० पु. ) आदौ ब्रह्मा ब्राह्मणः पश्चाद्राक्षसः हिरण्यगर्भका विप्रसृष्टि प्रधान कालभेद । कुकर्मभिः राक्षसयोनि गतः। १ भूतविशेष, वह ब्राह्मण ब्रह्मयुज् ( स० वि० ) ब्रह्म-युज-क्षिप् । मन्त्र द्वारा | जो मर कर भूत हुआ हो। युक्त। "संयोगं पतितर्गत्वा परस्ययैव च योषिताम् । ब्रह्मयोग (सं० पु.) ब्रह्मणस्तत्साक्षात्कारस्य योगः अपहृत्यच विप्रस्वं भवति ब्रह्मराक्षसः ॥" (मनु० १२६०) समाधिः। ब्रह्मसाक्षात्कारसाधन समाधिभेद । जो पतितके साथ संसर्ग, परस्त्री गमन और प्राह्मणका