पृष्ठ:हिन्दी विश्वकोष पंचदश भाग.djvu/६२५

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ब्रह्माभ्यास-ब्रह्मी ६१ मौर धृतराष्ट्र पे सात राक्षस वास करते हैं। ब्रह्मासन (सली . ) ब्रह्मणे ब्रह्मप्राप्त आसनं । ध्याना- ( बिष्णुपु० २।१०।१५)। सेन, योगासन। जिस आसन पर बैठ कर ब्रह्मध्यान ब्रह्माभ्यास ( स० पु. ) ब्रह्मणः वेदस्य अभ्यासः। वेदा- किया जाता है, वह पद्म और स्वस्तिकादि आसन है । २ भ्यास। रुद्रयामलोक्त देवपूजा आरान भेद। ब्रह्मायण (सत्रि०)१ब्रह्मका आश्रय स्थान । २ नारा- "बह मासनं तदा वक्ष्ये यत्कृत्वा ब्राहमणो भवेत् । यणका नामान्तर । एक पादमूरी दत्वा तिष्टं द्दण्डाकृतिर्भवेत् ॥" ब्रह्मायतन (स क्लो०) ब्रह्मणः आयतन। १ ब्रह्मणका (रुद्रयामल) गृह । २ ब्रह्ममन्दिर। ऊरुमें एक पाद दे कर दण्डाकृति अवस्थान करनेसे "बृहमायतने विप्रान विनिहज्यागामिनो गोठे। ब्रह्मासन होता है। इस प्रकार आसन करके तपस्या (वृहत्स० ३३।२२) करनेसे ब्रह्मत्वलाभ होता है। ब्राह्मणके घर पर उल्कापात होनेसे विप्रगणका ब्रह्मास्त्र ( स० क्लो०) ब्रह्मस्वरूपमन्त्र । ब्रह्मस्वरूप अत्र- विनाश होता है। विशेष । यह सब अत्रोंसे श्रेष्ठ है । मन्त्रपूत करके इसका ब्रह्मारण्य ( स० क्ली० ) ब्रह्मणः वेदस्य अरण्यमिव । वेद- प्रयोग करना होता है। पाठ भूमि। "तदा रामेगा ऋद्वेन ब्रह्मास्त्र प्रति रावणे । ब्रह्मार्पण (सक्लो०) ब्रह्म वार्पणं । १ सर्वकर्माद्यात्मकरूपमें । नारायणाविधातार्थ चिन्तितं चेतुराननम् ॥” ( देवीपु.) ब्रह्मचिन्तन । २ एक रसौपध जो सन्निपातमें दिया जाता है। यह "ब्रह्मार्पणां ब्रह्महविहााग्नौ बहाणाहुतम् ।।" रस पारे, गंधक, सोंगिया और काली मिर्च के योगसे (गीता ४।२४) बनता है। २ परमात्मा ब्रह्ममें सर्वकर्म फलका त्याग । कूर्मपुराण- . ब्रह्मास्य ( स० क्ली०) ब्रह्मा वा ब्राह्मणका मुख । में लिखा है- ब्रह्माहुत ( म० त्रि०) कृताहुति, जिसे आहुति दो गई हो। ब्रह्मासे जो कुछ दिया जाता है, वह फिर ब्रह्मको ब्रह्माहुति (स० स्त्री०) ब्रह्मवाहुतिः । ब्रह्मयज्ञ, वेदाध्ययन । हो अर्पित होता है। हम लोग किसी कार्यके कर्ता नहीं हैं, ब्रह्म ही सबोंके कर्ता हैं। इस प्रकार सभी ब्रह्मिन् (स० पु०) ब्रह्म वेदस्तपो वाऽस्त्यस्य शेषतया ब्राह्यादित्वादिनि, टिलोपः। १ वेद और तपस्याके शेषी- कर्मों के अर्पणका नाम ब्रह्मार्पण है। (कूर्मपु० ४ अ०) भूत परमेश्वर । ब्रह्म वेदो वैद्यतयाऽस्त्यस्य इनि। २ घेद ब्रह्मावत ( स० पु०) ब्रह्मणां ब्रह्मनिष्ठब्राह्मणानामावत्त और तदर्थाभिश। इव, बहुलब्राह्मणाश्रयत्वादस्य तथात्वं । १ देशविशेष । सरस्वती और द्रषद्धती इन दो नदियों के बीच जो प्रदेश बलिष्ठ ( स० वि०) अतिशयेन ब्रह्मो इष्ठन्, टिलोपः। अतिशय ब्रह्मज्ञ, ब्रह्मज्ञानसम्पन्न । पड़ता है, उसीका नाम ब्रह्मावर्त्त है। यह देश देवनिर्मित होनेके कारण पवित्र माना गया है। इस देशमें ब्राह्म- ब्रा ब्रह्मिष्टा ( स० स्त्री० ) ब्रह्मिष्ठ-टाप् । दुर्गा। णादि वर्णो का जो आचार है, वही सदाचार कहलाता ब्रह्मो ( स० स्त्री०) मेधाजनकत्वात् ब्रह्मणे हिता ब्रह्म-अन् बाहुलकात् न वृद्धिः। स्वनामख्यात शाकविशेष, ब्रह्मी- इस देशका आचार ही सबोंके शिक्षणोय है । अलावा शाक । इसका गुण-सारक, शीतवीर्य, तिक्त, कषाय,मधुर- इसके कुरुक्षेत्र, मत्स्य, कान्यकुब्ज और मथुरा ये सब रस, लघु, मेधाजनक, शीतल, मधुरविपाक, भायुल्कर, ब्रह्मर्षिदेश हैं। बह मर्षिदेश देखो। रसायन, स्वर और स्मृतिशक्ति-वर्द्धक, कुष्ठ, पाण्ड, २ ब्रह्मावर्त्तमें अवस्थित एक तीर्थका नाम। मेह, रक्तदोष, कास, विष, शोथ और ज्वरनाशक । (भारत ३२८४४०) (भावप्र०) बाइ मी शब्द देखो।