पृष्ठ:हिन्दी विश्वकोष पंचदश भाग.djvu/६२६

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ब्रह्मीधृत-बाहुई (बा-रो-ई) २ पगड़कमत्स्य, एक प्रकारको मछली जो विशे-; ब्राह्मण स्वामिक भूम्यादि, वह भूमि जो ब्राह्मणको दान षतः पंकमें ही रहती है। ३ कञ्जिका भारंगी। की जाय। ब्रह्मोत्तर भूमिका कर नहीं लगता। ब्राह्मीघृत ( स० क्ली०) ब्रह्मीजात घृतं । घृतौषधि विशेष । ब्रह्मोदतीर्थ ( स० क्ली० ) तीर्थविशेष । इसका दूसरा नाम सारस्वतीघृत है। प्रस्तुत प्रणाली-- ब्रह्मोद्भव ( स० पु. ) शिव । मूल और पत्र सहित ब्रह्मीशाकको जलमें धो कर ब्रह्मोद्य (सं० क्ली० ) ब्रह्मो वेदस्य वदन बह्म वद-क्या । १ ऊखलमें कुटे; बादमें उसका रस निचोड़ ले, अनन्तर : ब्रह्मवाक्य, वेदवाक्य । २ ब्राह्मणका वाक्य । ३ ब्रह्म- यह रस १६ सेर, गष्य घृत ४ सेर, कलकार्थ हरिद्रा, कथन। मालतीपुष्प, कुट, निसोथ, हरोनकी, प्रत्येकका रस एक ब्रह्मोद्या ( स० स्त्री० ) ब्रह्म-वद क्यप-टाप् । ब्रह्मको पल और पीपल, विडङ्ग, सैन्धव, चीनी, वच, प्रत्येक दो कथा। तोला इनका यथाविधान धोमी आंचमें पाक करना ब्रह्मोपनिषद् ( स० पु०) उपनिषद्विशेष । होगा। यह घृत पान करनेसे स्वरविकृति दूर होती है। ब्रह्मोपनेत ( स० पु० ) ब्रह्माणं ब्राह्मणं उपनयते इति, ब्रह्म जो कोकिलके जैसा अपना कण्ठस्वर बनाना चाहे उप-नी-नृच् । १ पलाशवृक्ष । २ ब्राह्मणका उपनयन उन्हें इस घृतका अवश्य सेवन करना चाहिये। ७ दिन करानेवाला । तक इस घृतका सेवन करनेसे किन्नरकी तरह कण्ठस्वर ब्रह्मौदन (स० क्ली०) ब्रह्मणे देयमोदनं । यह अन्न जो यज्ञ- और एक मास सेवन करनेसे श्रुतिधर होता है। इस में ऋत्यिकोंको दिया जाता है। घृतके सेवन करनेसे कुष्ट, अर्श, प्रमेह और काशरोग प्रश “ बमोदनं विश्वजितः पचामि शृण्व'तु मे ॥" मित एवं बल, वर्ण और अग्निकी वृद्धि होती है । ( भैपज्य (अथ० ४।३।७) रत्नावली म्घरभेदाधिकार ) ब्राहुई (बा-रो-ई)-बलुचिस्तानका पार्वत्यदेशवासी जाति- ब्रह्मीयस (स० त्रि०) अतिशयने ब्रह्मो ब्रह्म ईयसुन्, टिलोः। विशेष । खिलातके खाँको ही वे लोग राजा मानते हैं। ब्रह्मिष्ठ, ब्रह्मज्ञानसम्पन्न । इनकी भाषा बाहुई है जो पारसी, पेन्थू वा बलूची भाषासे ब्रह्मन्द्रसरस्वती-१ वेदान्तपरिभाषाके प्रणेता। २ एक स्वतन्त्र हैं ।* झलावर और सरावर प्रदेशमें बहुसंख्यक प्रन्थकार । कवीन्द्रकृत कवीन्द्रचन्द्रोदयमें इनका * प्रत्नतत्त्वविद् मेशनके मतसे यह जाति पश्रिम-एशिया- उल्लेख है। खण्डसे बलुचिस्तानके पहाड़ी प्रदेशमें आ कर बस गई। डाः ब्राह्मन्द्रस्वामी-एक ग्रन्थकार । कवीन्द्र चंद्रोदयमें इनको : काल्डवल इन लोगोंका द्राविड़वंशीय और भूमध्यसागरके उपकूलसे परिचय देखने में आता है। आना बतला कर लिपिवद्ध कर गये हैं। उनका यह भी अमुमान ब्रह्म शय ( स० त्रि०) ब्रह्मणि तपसि शेते शो-अच्, पृषो- - है, कि आर्य शक आदिकी तरह द्राविड़ लोग उत्तरपश्चिम पथसे दरादित्वात् साधुः। १ कार्तिकेय। २ विष्णु। भारतवर्ष आये थे। बाहुईगयाका कहना है, कि उनके पूर्वपुरुष ब्रह्म श्वर---गणपतिरत्नद्वीपके प्रणेता। हाल्व और आलिपो नामक स्थानसे इस देशमें आये हैं। पटि- ब्रह्म श्वरतीर्थ (सं० क्लो०) तीर्थविशेष। खर साहबने उनकी भाषामें प्राचीन हिन्दू शब्दमालाका प्रयोग ब्रह्मोक (सं० पु० ) ब्रह्म वेदमुज्झति उज्म त्यागे अण् । पाया है। उनकी धारणा है, कि बाहुरंगण शक, तुराणी या घेदत्यागी । मनुने वेदत्यागोको अनुपातको बत-: तामिल शाखाके अन्तर्भुक्त होंगे। अलेकसन्दरके अनुगामी शक लाया है। (Sakae ) सेनागण परोपमिसस पर्वत और भालहदके मध्य- ब्रह्मोडम्वर (सं० क्ली० ) तीर्थपेद । वर्ती स्थानसे भारतवर्ष आये थे। सिन्धुप्रदेशसे वे लोग फिर ब्राह्मोत ( स० वि०) ब्रह्मणि-आ-सम्यक्-प्रकारेण उतं प्रथिः । मूलागिरिसङ्कट पार कर वर्तमान वास भूमिमें बस गये। अभी तम् । ब्रह्ममें प्रथित। । उस आर्महदके निकटवर्ती स्थानमें झलाधरके ब्राहुई लोगोंकी ब्रह्मोत्तर (स.नि.) ब्रह्मा बाह्मणः उत्तरः प्रधानं यस्य ।। तरह एक अनुरूप जातिका बास देखा जाता है।