पृष्ठ:हिन्दी विश्वकोष पंचदश भाग.djvu/६२८

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१२ ब्राह्मण लिखा है--परमेश्वरने पृथिवीके मनुष्योंकी वृद्धिके लिये सकते। विप्र आचार युक्त हो कर यदि वैदिक अनुष्ठान मुख, बाहु, ऊरु और पादसे क्रमशः ब्राह्मण, क्षत्रिय, वैश्य करे तो वेदफलका सम्पूर्ण भागी हो सकता है। . . (मनु १०) और शूदवर्णको सृष्टि की। ब्राह्मणकी सृष्टि कर उनके लिए अध्यापन, अध्ययन, यजन, याजन, दान और प्रतिः । ____ महाभारतमें लिखा है.--ब्राह्मणी, क्षत्रिया और वैश्या- प्रह इन छः काँका निर्देश किया। इसीलिए ब्राह्मणका के गर्भसे ब्राह्मण द्वारा जो पुत्र उत्पन्न होता है, वह पुल भी ब्राह्मण होता है। एक नाम पटकर्मा भी है। "ब्राह्मण्यां ब्राह्मणाजातो ब्राह्मणः स्यान्न संशयः । "अध्यापनमध्ययन पजनं याजनं तथा । क्षत्रियायां तथैव स्याद् वैश्यायामपि चैव हि ॥" दानं प्रतिग्रहञ्चैव ब्राह्मणानामकल्पयत् ॥" (भारत० अनु० ५०४७२७) (मनु० ११८८) ब्राह्मणीके गर्भसे ब्राह्मण द्वार जो पुत्र उत्पन्न होता ब्रह्माके मुखसे ब्राह्मणने जन्म लिया है; ब्राह्मण सबसे है, वही ब्राह्मण सर्वापेक्षा श्रेष्ठ है। पहले उत्पन्न हुए हैं, और वेद धारण करते हैं इस कारण ____ महाभारत शान्तिपर्वमें विपके लक्षण इस प्रकार धर्मानुशासनमै ब्राह्मण हो मृष्ट पदार्थांके प्रभु हैं। देव . लिखे हैं, जो जातकर्गादि संस्कार द्वारा संस्कृत है, लोक और पितृलोको हथ्यकथ्य प्राप्त होंगे और उससे परम पवित्र और वेदाध्यानमें अनुरक्त हो कर प्रतिदिन समस्त जगन्को रक्षा होगी, इमलिए ब्रह्माने तपस्या सन्ध्यावन्दना, स्नान, जप, होम, देवपूजा और अतिथि- करके पहले अपने मुखसे ब्राह्मणको सृष्टि का । स्वगवासा: सत्काररूप पटकर्मका अनशान करते हैं तथा शौचाचार देवगण जिनके मुखसे हवनीय द्रध्य सामग्री सदा भाजन परायण, नित्य ब्रह्मनिष्ट गप्रिय और सर्वदा सत्य- करते हैं, पितृगण श्राद्धादिमें प्रदत्त अन्नादि जिनके मुख- निरत रहते हैं वे हो ब्राह्मण हैं। बाह्मण केवल सत्त्व- से ग्रहण करते हैं, ऐसे ब्राह्मणोंसे श्रेष्ठ और कौन हो ! गुण प्रधान होते हैं। ( भारत शान्तिप० १६० अ०) सकता है ? सृष्ट पदार्थों में जिनके प्राण हैं वे श्रेष्ठ है, विप्रको जीविका आदिके विषयमें भगवान् मनुने कहा बद्धिजीवियों में मनुष्य श्रेष्ठ हैं, और मनुष्यों में ब्राह्मण ही है. कि विप्रको जीवितकालके प्रथम चतुर्थभागमें गुरुके सर्वश्रेष्ठ है। ब्राह्मणों में जो विद्वान् हैं वे श्रेष्ठ हैं और निकट रह कर तथा द्वितीयभागमें कृतदार हो कर अपने उनमें भी अनुष्ठानकारी श्रेष्ठ है तथा उनसे भी श्रष्ट है : गहमें अवस्थान करना चाहिए । ब्राह्मणको ऐसो आजीविका ब्रह्मज्ञ ब्राह्मण । न करनी चाहिए, जिसमें किसी जीवको किसी प्रकार विप्रकी जो शरीरोत्पत्ति है, वह धर्मको शाश्वत मूत्ति- अनिष्ट हो, वा थोड़ी भी पीड़ा हो । आपत्कालमें भी ऐसी मान अवस्था है। धर्मार्थ उपनोत हो कर विप्र ब्रह्मत्व हेय वत्ति ब्राह्मणके लिए विधेय नहीं है। संसारयात्रा प्राप्त करते हैं। जब ब्राह्मण जन्मग्रहण करते हैं, तब . किसी प्रकार चली चले, और शरीरको किसी प्रकारका वे पृथिवीमें सर्वोपरि प्रतिष्ठित तथा धर्मोको क्लेश न पहुंचे, ऐसा लक्ष्य रख करके हो ब्राह्मणको धन- रक्षार्थ सर्वजीवके ईश्वरत्वमें व्रती होते हैं । त्रैलोक्यान्त-: सञ्चय करना चाहिए । ब्राह्मणको ऋत, अमृत, मृत, वत्ती समस्त धन ही विश्वका निजस्व है। सर्व वर्गों में ! प्रमृत वा सत्यानृत द्वारा आजीविका निर्वाह करनी श्रेष्ठ और उत्कृष्ट स्थान जात होनेसे विप्र ही सम्पूर्ण चाहिए; किन्तु श्ववृत्ति (नौकरी) कदापि नहीं करनी सम्पत्ति प्रश्रिहके योग्यपात्र हैं । विप्र जो भोजन : चाहिए। मृत आदिका अर्थ इस प्रकार है.-भूमिमें गिरे करता है, परिधान या दान करता है, वह परकीय होने हुए धान्यादिके कणोंको संग्रह करना शिलवृत्ति है. पर भी उसका निजम्व है। कारण विप्रके ही अनुग्रहसे इसके द्वारा जीविका निर्वाह करनेका नाम ऋत है । अया- अन्यान्य लोक भोजनपानादि द्वारा जीवित रहते हैं। चितरूपसे जो कुछ भी उपस्थित हो, उसे अमृतवृत्ति _ विप्रको सर्वदा आधारानुष्ठानमें यत्नवान् रहना कहते हैं । भिना-जोवनका नाम मृत-वत्ति है और बाणिज्य चाहिए। आचारभ्रष्ट होनेसे घेदके फलभोगी नहीं हो द्वारा जीविका निर्वाह करना सत्यान्त वृत्ति है।