पृष्ठ:हिन्दी विश्वकोष पंचदश भाग.djvu/६२९

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ब्राममा ६२३ इन वृत्तियों द्वारा जीविकानिर्वाह करनेवाला ब्राह्मण किसी स्थानसे धन सञ्चयकी चेष्टा करना ब्राह्मणके चार श्रेणियों में विभक्त है। जैसे कुशूल धान्यक, कुम्भी.. लिए निषिद्ध है। इच्छापूर्वक किसो इन्द्रिय-विषयमें धान्यक, नाहैहिक और अश्वस्तनिक । जो ब्राह्मण तीन : आसक्त न हो; इन्द्रिय किसी विषयमें आसक्त हों, वर्ण तक 'अनायास ही निर्वाह कर सकता है, उसको तो उनको भी निवृत्त करना चाहिये । कोई भी कुशूलधान्यक कहते हैं। इस प्रकारके ब्राह्मण सोमपान ऐसा उपार्जन न करें जो वेदाभ्यासके विरुद्ध हो । किसी करनेके योग्य हैं। जो एक वर्ष के लिए धान्यादिका भी प्रकारसे परिवारका प्रतिपालन कर, प्रतिदिन स्वा- संग्रह कर रखते हैं, ऐसे ब्राह्मण कुम्भोधान्यक कहलाते ध्याय कार्य माङ्ग कर लेने मानसे हो ब्राह्मणका जीवन हैं। किसी किसीके मतसे ६ मासके लिये भी धान्यका सफल है । जैसी उम्र हो, जैसा कर्म हो, जितना धन हो, संग्रह रखनेवालेको कुम्भीधान्यक कहते हैं। तीन दिन : जैसा वेदाध्ययन और जैसी वंशको मर्यादा हो, उसीके लायक धान्यका संग्रह रखें, ऐसे ब्राह्मण बाहिक कहाते अनुसार वेश, भूषा, वाक्य और बुद्धि रखना हो विधेय हैं। जो कलके लिए भी कुछ संग्रह नहीं करते, नित्य संग्रह है। ब्राह्मणको चाहिए, कि वह ऋषियज्ञ अर्थात् वेदाध्य. करते और निर्वाह करते हैं, ऐसे ब्राह्मण अश्वस्तनिक हैं। यन, देवयज्ञ तथा होम, भृतयज्ञ, ( भूतवलि ) मनुष्ययक्ष अश्वस्तनिक विप्र ही सबसे श्रेष्ठ हैं। उनके बाद (अतिथिसत्कार ) और पितृयज्ञ ( श्राद्ध ) इन पांच लाहैहिक और कुम्भाधान्यक हैं । कुशूल धान्यक ब्राह्मणोंमें यशोंका सर्वदा अनुष्ठान करे। शक्ति हो तो इन यज्ञान- निकृष्ट हैं। प्ठानोंका कदापि परित्याग न करे। उदित होमकारीको इन सभी प्रकारके ब्राह्मणोंमेंसे कोई मृतामृतादि ब्राह्मण दिन और रात्रिके प्रारम्भमें तथा अनुदित होम- षट कर्मशील हैं, कोई विकमैशाली हैं, कोई द्विकर्मवान् कारोको दिन और रात्रिके अन्तमें सर्वदा अग्निहोत्रया हैं और कोई अध्यापना मात्र द्वारा ही निर्वाह करते हैं।। करना चाहिए। कृष्णपक्ष समाप्त होने पर दर्श नामक शिलोऽछवृत्ति परायण विप्र धन साध्य पुण्य कममें यज्ञ तथा पूर्णिमाको पौर्णमास यश, नृतन शस्य उत्पन्न भक्षम हों तो वे केवल मात्र अग्निहोत्रपरायण होंगे, और होने पर अग्रहायण याग, ऋतु पूर्ण होने पर चातुर्मास पर्व तथा अयनान्तमें जो यज्ञ किये जाते हैं । अर्थात दर्श- याग और अयनके प्रारम्भमें पशयाग करना उचित है। पौर्णमासादि यज्ञ ) करेंगे। जो दम्भादिसे रहित और वेद विरुद्ध मार्गावलम्यो, वर्णान्तरवृसिजीवी, विलाड़- सरल हो, जिस आजीविकाके लिए कुछ भी शठता वा व्रतो, वेदविरुद्धतार्किक और वक्रवती ब्राह्मणोंको वाक्य वञ्चना न करनी पड़ती हो, जो अति विशुद्ध द्वारा अर्चना नहीं करनी चाहिये। अन्नदानके लिये अर्थात् पाप-रहित हो, ऐसी आजीविका ब्राह्मणको यजन निषेध नहीं है। स्नातक ब्राह्मणको मुण्डन न याजनादि द्वारा सम्पन्न करना योग्य है। सुखार्थी ब्राह्मण कराना चाहिए, किन्तु केश, नन और श्मश्रु कर्तन कर मात्र सन्तोष अवलम्बन-पूर्वक धन-चेष्टादिसे विरत रहे। सकते हैं। इन्हें सर्वदा फ्लेशसहिष्णु और शुक्लवास कारण, सन्तोष ही सुखका मूल है और असन्तोष परिधान करना चाहिए। भिक्षादिके समय घेणु निर्मित दुःखका कारण। यष्टि और शौच प्रस्त्रावादिके लिए जल-पण कमण्डल गृहस्थ ब्राह्मणोंको उपयुक्त वृत्तियों से कोई भी एक साथ रखें। सूर्योदय और सूर्यास्तके समय सूर्य-दर्शन वृत्ति अवलम्बन कर निम्नोक्त नियमोंका पालन करना करना निषिद्ध है। राहु-प्रस्त और जल प्रतिविम्बित • चाहिए। ब्राह्मणोंको उचित है, कि यावजीवन निरलस सूयका दर्शन भी विधेय नहीं। वत्सवन्धनको रज्जुका रह कर अपने अपने आश्रमानुसार वेदोक्त और स्मात्त उल्लङ्घन, वारिवर्षणके समय द्रुतगमन और जलमें अपना कर्तव्यकर्मों का सम्पादन करें। जिन विषयोंमें इन्द्रियोंकी प्रतिविम्ब दर्शन पे कार्य भी निषिद्ध कहे गये हैं। एक शीघ्र आशक्ति होती है, ऐसे कर्म वा शास्त्रविरुद्ध अया- वस्त्र पहन कर भोजन करना, विवस्त्र हो कर स्नान करना ज्यथाजनादि तथा धन रहने पर वा उसके अभावमें। तथा मार्गमें, भस्मके ऊपर, गोचारण स्थानमें, फाल द्वारा